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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - द्यावापृथिवी देवते छन्दः - ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
    159

    उप॑हूतो॒ द्यौष्पि॒तोप॒ मां द्यौष्पि॒ता ह्व॑यताम॒ग्निराग्नी॑ध्रा॒त् स्वाहा॑। दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। प्रति॑ गृह्णाम्य॒ग्नेष्ट्वा॒स्येन॒ प्राश्ना॑मि॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। द्यौः। पि॒ता। उप॑। माम्। द्यौः। पि॒ता। ह्व॒य॒ता॒म्। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रात्। स्वाहा॑। दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। प्रति॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नेः। त्वा॒। आ॒स्ये᳖न। प्र। अ॒श्ना॒मि॒ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपहूतो द्यौष्पितोप माम्द्यौष्पिता ह्वयतामग्निराग्नीध्रात्स्वाहा । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । प्रति गृह्णाम्यग्नेष्ट्वास्येन प्राश्नामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपहूत इत्युपऽहूतः। द्यौः। पिता। उप। माम्। द्यौः। पिता। ह्वयताम्। अग्निः। आग्नीध्रात्। स्वाहा। देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। प्रति। गृह्णामि। अग्नेः। त्वा। आस्येन। प्र। अश्नामि॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तमेवार्थं द्रढयति॥

    अन्वयः

    मया द्यौः पितेश्वर उपहूतो मामुपह्वयतां स्वीकरोत्वेवं मया द्यौः पिता पालनहेतुः सूर्य्यलोक उपहूतः स्पर्द्धितः सन् मां विद्यायै उपह्वयति। योऽग्निः स्वाहा सुहुतं भुक्तमन्नमाग्नीध्रात् पचति, यो देवस्य सवितुः प्रसवे वर्त्तमानोऽस्ति, तमहं भोगमश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रतिगृह्णामि। गृहीत्वा च प्रदीप्तस्याग्नेर्मध्ये पाचयित्वाऽऽस्येन प्राश्नामि॥११॥

    पदार्थः

    (उपहूतः) कृतोपह्वानः (द्यौः) प्रकाशरूपः (पिता) सर्वपालक ईश्वरः (उप) क्रियार्थे (माम्) सुखभोक्तारम् (द्यौः) प्रकाशमयः (पिता) पालनहेतुः सूर्य्यलोकः (ह्वयताम्) ह्वयति। अत्र व्यत्ययेन लडर्थे लोट् (अग्निः) जाठरस्थः (आग्नीध्रात्) अन्नाशयात्। साधुत्वमस्य पूर्ववज्ज्ञेयम् (स्वाहा) सुहुतं सुखकार्याहेश्वरः (देवस्य) हर्षकरस्य (त्वा) त्वां तं वा (सवितुः) सर्वस्य जगतः प्रसवितुरीश्वरस्य (प्रसवे) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति (अश्विनोः) प्राणापानयोः (बाहुभ्याम्) आकर्षणधारणाभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिहेतोः समानस्य वायोः (हस्ताभ्याम्) शोधनसर्वाङ्गप्रापणाभ्याम् (प्रतिगृह्णामि) नित्यं स्वीकरोमि (अग्नेः) भौतिकस्य पाचकस्य (त्वा) तं भक्ष्यं पदार्थम् (आस्येन) मुखेन ओष्ठात् प्रभृति प्राक् काकलकादास्यम् (अष्टा॰१.१.९) इति महाभाष्ये। अस्यन्ति प्रक्षिपन्ति उदरेऽन्नादिकं येन, तदास्यं मुखम् (प्र) गुणैर्यत्प्रकृष्टं तदर्थे। क्रियायोगे। प्रपरेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह (निरु॰१.३) (अश्नामि) भुञ्जे। अयं मन्त्रः (शत॰१.६.३.३९-४४) व्याख्यातः॥११॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरात्मशुद्ध्यर्थमनन्तविद्याप्रकाशकस्य परमेश्वरस्याह्वानं नित्यं कार्य्यम्। तथा च विद्यासिद्धये चक्षुषां संशोध्य जाठराग्निं प्रदीप्य, संस्कृतं मितमन्नं नित्यं भोक्तव्यम्। ईश्वरेण जगत्युत्पादितैः पदार्थैर्यः सर्वो भोगः सिध्यति, स च विद्याधर्मयुक्तेन व्यवहारेण भोक्तव्यो भोजयितव्यश्च। ये पूर्वमन्त्रेण पृथिव्यां विद्यया प्राप्तव्या मान्यकारिणः पदार्था उक्तास्तेषां भोगो धर्मेण युक्त्या च सर्वैः कार्य्य इत्यनेन प्रतिपादितः॥११॥

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    विषयः

    पुनस्तमेवार्थं दृढयति॥

    सपदार्थान्वयः

    मया द्यौः प्रकाशस्वरूपः, पिता=ईश्वरः सर्वपालक (ईश्वरः) उपहूतः कृतोपह्वानो मां सुखभोक्तारम् उप+ह्वयताम्=स्वीकरोतु

    एवं मया द्यौः प्रकाशमयः पिता=पालनहेतुः सूर्यलोक उपहूतः=स्पर्द्धितः सन् कृतोपह्वानो मां सुखभोक्तारं विद्यायै [उपह्वयताम्]=उपह्वयति।

    योऽग्निः जाठरस्थः स्वाहा=सुहुतं भुक्तमन्नं (सुहुतं) सुखकार्याहेश्वर आग्नीध्रात् अन्नाशयात् पचति, यो देवस्य हर्षकारस्य सवितुः सर्वस्य जगतः प्रसवितुरीश्वरस्य प्रसवे उत्पन्नेऽस्मिन् जगति वर्तमानोऽस्ति, तं अहं [त्वा]=भोगं तं भक्ष्यं [त्वा]=भोगं तं भक्ष्यं पदार्थम् अश्विनोः प्राणाऽपानयोः बाहुभ्याम् आक- र्षणधारणाभ्यां पूष्णः पुष्टिहेतोः समानस्य वायोः हस्ताभ्यां शोधनसर्वाङ्गप्रापणाभ्यां प्रति+गृह्णामि नित्यं स्वीकरोमि।

    गृहीत्वा च प्रदीप्तस्याऽग्नेः भौतिकस्य, पाचकस्य मध्ये पाचयित्वा [त्वा] तं (त्वा तं वा) आस्येन मुखेन प्राश्नामि प्रकर्षेण भुञ्जे ॥ २ । ११ ॥

    पदार्थः

    (उपहूतः) कृतोपह्वानः (द्यौः) प्रकाशरूपः (पिता) सर्वपालक ईश्वरः (उप) क्रियार्थे (माम्) सुखभोक्तारम् (द्यौः) प्रकाशमयः (पिता) पालनहेतुः सूर्यलोकः (ह्वयताम्) ह्वयति । अत्र व्यत्ययेन लडर्थे लोट् (अग्निः) जाठरस्थः (अग्निध्रात्) अन्नाशयात् । साधुस्वमस्य पूर्ववज्ज्ञेयम् (स्वाहा) सुहुतं सुखकार्याहेश्वरः (देवस्य) हर्षकरस्य (त्वा) त्वां तं वा (सवितुः) सर्वस्य जगतः प्रसवितुरीश्वरस्य (प्रसवे) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति (अश्विनोः) प्राणापानयोः (बाहुभ्याम्) आकर्षण-धारणाभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिहेतोः समानस्य वायोः (हस्ताभ्याम्) शोधनसर्वाङ्ग-प्रापणाभ्याम् (प्रतिगृह्णामि) नित्यं स्वीकरोमि (अग्नेः) भौतिकस्य पाचकस्य (त्वा) तं भक्ष्यं पदार्थम् (आस्येन) मुखेन । ओष्ठात्प्रभृति प्राक्काकलकादात्यम्॥ अ० १ । १ ॥९ ॥ इति महाभाष्ये । अस्यन्ति=प्रक्षिपन्ति उदरेऽन्नादिकं येन तदास्यं मुखम् (प्र) गुणैर्यत्प्रकृष्टं तदर्थे । क्रियायोगे । प्रपरेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह ॥ निरु० १ ॥ ३ ॥ (अश्नामि) भुंजे ॥ अयं मंत्रः श० १ । ८ । १। ४१ व्याख्यातः ॥११॥

    भावार्थः

    [मया द्यौः पिता=ईश्वर उपहूतो मां मुपह्वयतां=स्वीकरोतु...विद्यार्य [उपह्वयताम्]=उपह्वयति]

    अत्र श्लेषालङ्कारः॥ मनुष्यैरात्मशुद्ध्यर्थमनन्तविद्याप्रकाशकस्य परमेश्वरस्याह्वानं नित्यं कार्यम् । तथा च--विद्या सिद्धये--

    [अग्निः स्वाहा=सुहुतं भुक्तमन्नमाग्नीध्रात् पचति]

    चक्षुषा संशोध्य, जाठराग्निं प्रदीप्य संस्कृतं मितमन्नं नित्यं भोक्तव्यम् ।

    [देवस्य सवितुः प्रसवे--अहं [त्वा] भोग--हस्ताभ्यां प्रतिगृह्णामि]

    ईश्वरेण जगत्युत्पादितैः पदार्थैर्यः सर्वो भोगः सिध्यति, स च विद्याधर्मयुक्तेन व्यवहारेण भोक्तव्यो भोजयितव्यश्च।

    [ मन्त्रसंगतिमाह--]

    ये पूर्वमन्त्रेण पृथिव्यां विद्यया प्राप्तव्या मान्यकारिण: पदार्था उक्तास्तेषां भोगो धर्मेण युक्त्या च सर्वैः कार्य इत्यनेन प्रतिपादितः ॥ २। ११ ॥

    भावार्थ पदार्थः

    द्यौः=अनन्त विद्याप्रकाशक ईश्वरः । अग्निः=जाठराग्निः । ।

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः । द्यावापृथिवी=प्रकाशस्वरूप ईश्वरः, पृथिवी च ॥ मध्यमः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में उक्त अर्थ को दृढ़ किया है॥

    पदार्थ

    मुझसे जो (द्यौः) प्रकाशमय (पिता) सर्वपालक ईश्वर (उपहूतः) प्रार्थना किया हुआ (माम्) सुख भोगने वाले मुझ को (उपह्वयताम्) अच्छी प्रकार स्वीकार करे, इसी प्रकार जो (द्यौः) प्रकाशवान् (पिता) सब उत्तम क्रियाओं के पालने का हेतु सूर्य्यलोक मुझसे (उपहूतः) क्रियाओं में प्रयुक्त किया हुआ (माम्) सब सुख भोगने वाले मुझको विद्या के लिये (उपह्वयताम्) युक्त करता है, तथा जो (अग्निः) जाठराग्नि (स्वाहा) अच्छे भोजन किये हुए अन्न को (आग्नीध्रात्) उदर में अन्न के कोठे में पचा देता है, उससे मैं (देवस्य) हर्ष देने (सवितुः) और सब के उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के उत्पन्न किये हुए (प्रसवे) संसार में विद्यमान और (त्वा) उस उक्त भोग को (अश्विनोः) प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) आकर्षण और धारण गुणों से तथा (पूष्णः) पुष्टि के हेतु समान वायु के (हस्ताभ्याम्) शोधन वा शरीर के अङ्ग-अङ्ग में पहुँचाने के गुण से (प्रतिगृह्णामि) अच्छी प्रकार ग्रहण करता हूं, ग्रहण करके (अग्नेः) प्रज्वलित अग्नि के बीच में पकाकर (त्वा) उस भोजन करने योग्य अन्न को (आस्येन) अपने मुख से (प्राश्नामि) भोजन करता हूं॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को अपने आत्मा की शुद्धि के लिये अनन्त विद्या के प्रकाश करने वाले परमेश्वर पिता का आह्वान अर्थात् अच्छी प्रकार नित्य सेवन करना चाहिये तथा विद्या की सिद्धि के लिये उदर की अग्नि को दीप्त कर और नेत्रों से अच्छी प्रकार देख के संस्कार किये हुए प्रमाणयुक्त अन्न का नित्य भोजन करना चाहिये। सब भोग इस संसार में जो कि ईश्वर के उत्पन्न किये पदार्थ हैं, उन से सिद्ध होते हैं। वह भोग विद्या और धर्मयुक्त व्यवहार से भोगना चाहिये और वैसे ही औरों को वर्ताना चाहिये। जो पूर्वमन्त्र से पृथिवी में विद्या से प्राप्त होने वा मान्य के कराने वाले पदार्थ कहे हैं, उनका भोग धर्म वा युक्ति के साथ सब मनुष्यों को करना चाहिये। ऐसा इस मन्त्र से प्रतिपादन किया है॥११॥

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    विषय

    फिर भी उक्त अर्थ को दृढ़ किया है॥

    भाषार्थ

    मेरे द्वारा (द्यौः) प्रकाशस्वरूप (पिता) सब का पालन करने वाला परमेश्वर (उपहूतः) उपासना किया हुआ (माम्) सुखोपभोग करने वाले मुझको(उपह्वयताम्) अपनी शरण में लेता है।

    इसी प्रकार मेरे द्वारा (द्यौः) प्रकाशमय (पिता) पालन करने वाला सूर्यलोक (उपहूतः) सेवन किया हुआ (माम्) मुझ सुख उपभोक्ता का ज्ञान प्रदान करताह है।

    जो (अग्निः) जाठर-अग्नि=(स्वाहा) जिसमें होम किया हुआ ईश्वर ने सुखकारी बतलाया है अथवा खाए हुए अन्न को (आग्नीध्रात्) अन्नाशय से पकाता है, जो (देस्य) आनन्ददायक (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वाले ईश्वर के (प्रसवे) पैदा किए इस जगत् में विद्यमान है [त्वा] उस भोग (भक्ष्य-पदार्थ) को मैं (अश्विनोः) प्राण और अपान की (बाहुभ्याम्) आकर्षण और धारण शक्ति के द्वारा तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक समान वायु के (हस्ताभ्याम्) शोधन और शरीर के अंग-अंग में पहुंचाने वाले रूप गुणों से (प्रतिगृह्णामि) नित्य ग्रहण करता हूँ।

    और ग्रहण करके प्रज्वलित (अग्नेः) भौतिक पाचक अग्नि में पकाकर [त्वा] उस भक्ष्य-पदार्थ को (आस्येन) मुख से (प्र+अश्नामि) अच्छे प्रकार खाता हूँ॥ 

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलंकार है॥ मनुष्यों को अपनी आत्मा की शुद्धि के लिय अनन्त विद्या के प्रकाशक परमेश्वर की उपासना नित्य करनी चाहिए और विद्या की सिद्धि के लिये—

     आँखों से भली प्रकार देखकर, जाठराग्नि को प्रदीप्त कर शुद्ध एवं परिमित भोजन नित्य करें।

    ईश्वर के द्वारा जगत् में उत्पन्न किये पदार्थों से जो सब भोग सिद्ध होते हैं उनका विद्या और धर्म से युक्त व्यवहार से स्वयं उपभोग करें और करावें।

    पूर्व मन्त्र के द्वारा पृथिवी पर विद्या से प्राप्त होने वाले, मान के हेतु पदार्थ कहे हैं उनका उपभोग धर्म और युक्तिपूर्वक सब जनों को करना उचित है। यह इस मन्त्र के द्वारा प्रतिपादित किया है॥२।११॥

    भाष्यसार

    १. ईश्वर--अनन्त विद्या को प्रकाशित करने वाला, सब का पालक, उपासना से उपासक को स्वीकार करने वाला है।

    . सूर्य--प्रकाशमय और पालन का हेतु है। सुख के उपभोक्त को सूर्य, विद्या की प्राप्ति के लिए मानो बुला रहा है।

    ३. अग्नि--ईश्वर के उत्पन्न किये इस संसार में विद्यमान है। जाठराग्नि के रूप में विद्यमान अग्नि युक्त अन्न को अन्नाशय में पकाता है।

     ४. भोग--भक्ष्यपदार्थ प्राण और अपान की धारणा एवं आकर्षण रूप शक्तियों से तथा पुष्टिकारक समान वायु के शोधन एवं सर्वांगप्राप्ति रूप गुणों के कारण ग्रहण किये जातेहैं तत्पश्चात् उन्हें अग्नि में पकाकर उनका उपभोग किया जाता है॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। द्यावापृथिवी =प्रकाशस्वरूप ईश्वरः, पृथिवी च॥  मध्यमः॥

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    विषय

    स्वस्थ मस्तिष्क

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र ‘पृथिवी माता’ के उपाह्वान के साथ समाप्त हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र द्यौष्पिता के आह्वान से आरम्भ होता है। ( द्यौः पिता ) = पितृस्थानीय यह द्युलोक ( उपहूतः ) = मेरे द्वारा समीप पुकारा जाता है। यह ( द्यौःपिता ) = पितृस्थानीय द्युलोक ( माम् ) = मुझे ( उपह्वयताम् ) = अपने समीप पुकारे। मैं द्युलोक के समीप होऊँ और द्युलोक मेरे समीप हो। अध्यात्म में यह ‘द्युलोक’ मस्तिष्क है। मैं मस्तिष्क के समीप, मस्तिष्क मेरे समीप, अर्थात् मेरा मस्तिष्क सदा स्व-स्थ हो। मेरी बुद्धि मुझमें ही रहे, कहीं घास चरने न चली जाए। ( आग्नीध्रात् ) = सूर्यरूप अग्नि के आधार-स्थान इस द्युलोक से ( अग्निः ) = सूर्य के समान ज्ञान का प्रकाश  ( स्वाहा ) = मुझमें सुहुत हो। मैं स्वस्थ मस्तिष्कवाला बनूँ और मेरे ज्ञान का प्रकाश सूर्य के प्रकाश के समान चमकनेवाला हो।

    २. स्वस्थ मस्तिष्कवाला बनकर मैं ( त्वा ) = प्रत्येक पदार्थ को ( सवितुः देवस्य ) = उस उत्पादक देव की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( प्रतिगृह्णामि ) = ग्रहण करूँ। प्रभु के आदेशानुसार प्रत्येक पदार्थ का माप-तोलकर सेवन करूँ। मेरा प्रयोग मात्रा में हो, जिससे वे पदार्थ मेरी बल-वृद्धि का कारण बनें। 

    ३. ( अश्विनोर्बाहुभ्याम् ) = मैं प्रत्येक पदार्थ को प्राणापान के प्रयत्न से लूँ। बिना प्रयत्न के प्राप्त पदार्थ मेरे ह्रास का ही कारण बनेगा। 

    ४. ( पूष्णो हस्ताभ्याम् ) = मैं प्रत्येक पदार्थ को पूषा के हाथों से लूँ, अर्थात् पोषण के दृष्टिकोण से उसका प्रयोग करूँ। स्वाद या सौन्दर्य मेरे मापक न हों, उपयोगिता ही मेरी कसौटी हो। 

    ५. अन्तिम बात यह कि ( त्वा ) = तुझे ( अग्नेः आस्येन ) = अग्नि के मुख से ( प्राश्नामि ) = खाता हूँ। पहले तुझे अग्नि को खिलाता हूँ, फिर अवशिष्ट का ही ग्रहण करता हूँ, अर्थात् मैं यज्ञशेष का ही सेवन करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — स्वस्थ मस्तिष्कवाला व्यक्ति संसार में प्रत्येक पदार्थ का प्रयोग [ क ] प्रभु के आदेशानुसार मात्रा में करता है, [ ख ] प्रयत्नपूर्वक अर्जित पदार्थ का ही सेवन करने की कामना करता है, [ ग ] उसका मापक पोषण होता है, न कि स्वाद और [ घ ] अन्त में वह यज्ञशेष को ही खानेवाला होता है।

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    विषय

    उत्तम माता-पिता की शिक्षा की प्राप्ति और उत्तम स्वास्थ्य।

    भावार्थ

     ( द्यौः पिता ) अब जिस प्रकार आकाश वृष्टि या सूर्य आदि वर्षा करके समस्त प्राणि संसार का पालन करता है उसी प्रकार बालकों को सब प्रकार के सुख देनेवाला पिता भी ( उपहूतः ) शिक्षित हो और मान और आदर का पात्र हो । ( माम् ) मुझको ( द्यौ: पिता ) वह सब सुख-वर्षक पिता भी ( उपह्वयताम् ) शिक्षा प्रदान करे । और उसके पश्चात्, (अग्निघ्रात् अग्नि ) आचार्य पद से आचार्य ( सु-आह ) उत्तम ज्ञानोपदेश करे । अथवा (अग्नीघ्रात् अग्निः सु आह) जिस प्रकार अग्न्धीध्र=जाठर अग्नि के स्थान से अग्नि अर्थात् जाठर अग्नि अन्न को उत्तम रीति से ग्रहण करता और उत्तम रस प्रदान करता है । उसी प्रकार आचार्य हमें उत्तम ज्ञान रस प्रदान करे। हे अग्ने ! ( देवस्य सवितुः ) सर्वोत्पादक, देव परमेश्वर के ( प्रसवे ) उत्पादित इस जगत् में मैं ( अश्विनो: ) अश्विन, प्राण और अपान के (बाहुभ्याम् ) बाहुओं से और ( पूष्णः ) पूषा, पोषक समान वायु के ( हस्ताभ्याम् ) शोधन और सब अंगों में रस पहुंचा देने के दोनों बलों से (त्वा ) तुझ अन्न को ( प्रति गृह्णामि ) ग्रहण करूं | और (त्वा) तुझ ( अग्ने ) कभी मन्द न होने वाले जाठर अग्नि के ( आस्येन ) मुख से ( प्राश्नामि ) अच्छी प्रकार भोजन करूं ॥ शत० १ ।७४ । १३-१५ ॥
     

    टिप्पणी

    ११ - ब्रह्मत्वं प्रतिष्ठान्तं बृहस्पतिरांगिरसोऽपश्यत् । अतः परमष्टौ मन्त्राः काण्वशाखायामधिकाः पठ्यन्ते । ते परिशिष्टे द्रष्टव्याः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
    द्यावापृथिवी, सविता, प्राशित्रं च देवताः । बृहती । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी आपल्या आत्म्याच्या शुद्धीसाठी अनन्त विद्या प्रकट करणारा असा जो पितारूपी परमेश्वर आहे. त्याचा आदेश चांगल्या प्रकारे पालन केला पाहिजे. विद्येची सिद्धी करावयाची असेल तर जठराग्नी प्रदीप्त केला पाहिजे. डोळ्यांनी परीक्षा केलेले, संस्कारित व प्रमाणित केलेले अन्न खाल्ले पाहिजे. ईश्वराने निर्माण केलेल्या पदार्थांपासूनच सर्व भोग प्राप्त होऊ शकतात. त्यामुळे त्या पदार्थांचा भोग ज्ञानाने व धर्मयुक्त व्यवहाराने भोगला पाहिजे व इतरांनाही तसेच भोगावयास लावले पाहिजे. या पूर्वीच्या मंत्रात पृथ्वीवरील विद्येने प्राप्त होणाऱ्या पदार्थांचा उल्लेख केलेला आहे. त्यांचा माणसांनी धर्माने व युक्तीने उपभोग करावा, असे म्हटले आहे. तेच या मंत्रातही सांगितलेले आहे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात याच अर्थावर भर देऊन तोच अर्थ दृढ केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (घौ:) प्रन्माशमय (दिता) सर्वपालक ईश्‍वर, (उपहूत:) माझ्याद्वारे प्रार्थित तो जगदीश्‍वर (मां) सुखी असलेल्या मला (उपहृयताम्) स्वीकार करो. (आनंदाने मला आपले करी) (द्यौ:) प्रकाशमान (पिता) सर्व उत्तम क्रियांच्या पालक, श्रेष्ठ कार्यांच्या हेतू जो सूर्य, तो (उपहूत:) क्रिया आणि कार्यामधे प्रमुक्त झाल्यानंतर (मां) सुखाचा उपयोग असलेल्या मला (उपहृयताम्) विद्या जाणण्यासाठी प्रेरित करतो. याशिवाय (अग्नि:) जाठराग्नी (स्वाहा) स्वादिष्ट भोजनातील अन्नाचे (आग्नीध्रात) पोटाच्या अन्नाशयामधे पाचन करतो. त्या अन्नामुळे (देवस्य) मला आनंद देणार्‍या ईश्‍वराद्वारे (सनितु:) सर्वांना उत्पन्न करणार्‍या परमेश्‍वराद्वारे उत्पन्न (प्रसवे) या संसारात विद्यमान व सद्य: प्राप्त सुखभोगाचा मी आनंदाने स्वीकार करीत आहे. यासाठी (अश्‍विमो:) प्राणवायू आणि अपानवायूच्या (बाहुभ्यास) आकर्षण आणि धारण या गुणांचा तसेच (पूष्ण:) पुष्टिकाल समान नामक वायूचा (हस्ताभ्याम्) शरीराच्या प्रत्येक अंगात पोहचविण्यार्‍या त्या वायूंच्या गुणांचा (प्रतिगृहृामि) मी उत्तम प्रकारे लाभ घेतो. (अग्ने:) प्रज्वलित अग्नीमधे अन्नास चांगल्या प्रकारे शिजवून (त्वा) जेवणास योग्य अशा त्या अन्नाला (आस्मेत) आपल्या मुखाद्वारे (प्राश्‍नामि) खात आहे, सेवन करीत आहे.

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे. मनुष्यांनी आपल्या आत्म्याच्या शुद्धिकरिता अनंत विद्या प्रदाता सर्वांचा परमपिता जो परमात्मा, त्याला आव्हान करावे. त्याची प्रार्थना करावी. तसेच विद्येच्या प्राप्तीकरिता जाठराग्नीला प्रदीप्त करावे. नेत्रांनी अन्नाचे सूक्ष्म निरीक्षण करावे आणि अशा सुसंस्कारित अत्राने योग्य त्या प्रमाणात नित्य भोजन करावे. लक्षात ठेवावे की या जगात सर्व भोग्य पदार्थ ईश्‍वराने उत्न्न केले आहेत. त्या पदार्थांचा उपभोग योग्य त्या रीतीने आणि धर्मयुक्त आचरणानेच घेतला पाहिजे. तसेच इतरांनाही त्या पदार्थांचा उपयोग उचित व धर्ममय रीतीने करण्यास सांगितले पाहिजे. आधीच्या मंत्रात पृथ्वीवर विद्याज्ञानाते प्राप्त होणार्‍या व स्वीकारणीय अशा ज्या पदार्थांचे वर्णन केले आहे, सर्व मनुष्यांनी त्या पदार्थांचा उपयोग धर्ममार्गाने व योग्य रीतीने घेतला पाहिजे. या मंत्राद्वारे हाच अर्थ प्रतिपादित आहे.॥11॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I have prayed to the Effulgent, All sustaining God, May the Lord Father accept my prayer. Our digestive faculty digests by means of gastric juice the food put into the stomach. In this universe created by the All-Blissful God, I take that food through the qualities of attraction and retention, of inhalation and exhalation ; and the forces of purification and permeation of the invigorating air, throughout the body. Cooking my food in the burnt fire I eat it with my mouth.

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    Meaning

    Heavenly Father, invoked and worshipped! May the Heavenly Father receive me into His care and bless me with the gifts of fire from the vedi, the seat of yajna. In this blessed world of Savita’s creation, you receive a free flow of good health and nourishment from the arms of Ashwinis and the hands of Pusha, nature’s currents of energy and the motions of vital air. Yes, with my own mouth, I take in the food and inhale the breath of life from the vital fire of the Lord’s yajna. This is the voice of Divinity.

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    Translation

    Heaven, our father, has been invoked. May heaven, our father bless us. I am fire being the kindler of fire. Svaha. (1) At the impulsion of the Creator God, with arms of the healers and hands of the nourisher. (2) I take you. (3) I eat you with mouth of the fire. (4)

    Notes

    Agnestvasyena prasnami, l eat you with the mouth of fire.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেবার্থং দ্রঢয়তি ॥
    পুনরায় পরবর্ত্তী মন্ত্রে উক্ত অর্থ দৃঢ় করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যিনি (দ্যৌঃ) প্রকাশময় (পিতা) সর্বপালক ঈশ্বর (উপহূতঃ) প্রার্থনা কৃত (মাম্) সুখভোগকারী আমাকে (উপহ্বয়তাম্) ভাল মত স্বীকার করেন এই ভাবে যে (দ্যৌঃ) প্রকাশময় (পিতা) সব উত্তম ক্রিয়া পালনের হেতু সূর্য্যলোক আমার দ্বারা (উপহূতঃ) ক্রিয়ায় প্রযুক্ত (মাম্) সব সুখভোগকারী আমাকে বিদ্যার জন্য (উপহ্বয়তাম্) যুক্ত করে তথা যে (অগ্নিঃ) জঠরাগ্নি (স্বাহা) ভাল ভোজন করা অন্নকে (আগ্নীধ্রাৎ) উদরে অন্নকোষ্ঠে হজম করিয়ে দেয় তাহার ফলে আমি (দেবস্য) হর্ষকারী (সবিতুঃ) এবং সকলের উৎপন্নকারী পরমেশ্বরের উৎপন্ন (প্রসবে) সংসারে বিদ্যমান এবং (ত্বা) সেই উক্ত ভোগকে (অশ্বিনোঃ) প্রাণ ও অপানের (বাহুভ্যাম্) আকর্ষণ ও ধারণ গুণ দ্বারা তথা (পূষ্ণঃ) পুষ্টি হেতু সমান বায়ুর (হস্তাভ্যাম্) শোধন বা শরীরের অঙ্গে-অঙ্গে পৌঁছাইবার গুণ দ্বারা (প্রতিগৃহ্নামি) উত্তম প্রকার গ্রহণ করি, গ্রহণ করিয়া (অগ্নেঃ) প্রজ্জ্বলিত অগ্নির মধ্যে রন্ধন করিয়া (ত্বা) সেই ভোজন করার যোগ্য অন্নকে (আস্যেন) স্বীয় মুখ দ্বারা (প্রাশ্নামি) ভোজন করি ॥ ১১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগকে আত্মার শুদ্ধি হেতু অনন্ত বিদ্যার প্রকাশকারী ঈশ্বর পিতার আহ্বান অর্থাৎ সম্যক্ প্রকার নিত্য সেবন করা উচিত । তথা বিদ্যা সিদ্ধির জন্য উদরের অগ্নিকে প্রদীপ্ত করিয়া এবং নেত্র দ্বারা ভাল প্রকার দেখিয়া সংস্কার কৃত প্রমাণযুক্ত অন্নের নিত্য ভোজন করা উচিত । সব ভোগ এই সংসারে যাহা ঈশ্বরের উৎপন্ন পদার্থগুলি তদ্দ্বারা সিদ্ধ হইয়া থাকে তাহা ভোগ বিদ্যা ও ধর্মযুক্ত ব্যবহার দ্বারা ভোগ করা উচিত এবং সেইরূপ অন্যরাও ব্যবহার করিবে । যাহা পূর্বমন্ত্রে পৃথিবীতে বিদ্যা দ্বারা প্রাপ্ত হইবার বা মান্য করিবার পদার্থ বলা হইয়াছে তাহাদের ভোগ ধর্ম বা যুক্তি সহ সব মনুষ্যদিগের করা উচিত । এইরকম এই মন্ত্র দ্বারা প্রতিপাদন করা হইয়াছে ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উপ॑হূতো॒ দ্যৌষ্পি॒তোপ॒ মাং দ্যৌষ্পি॒তা হ্ব॑য়তাম॒গ্নিরাগ্নী॑ধ্রা॒ৎ স্বাহা॑ । দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ । প্রতি॑ গৃহ্ণাম্য॒গ্নেষ্ট্বা॒স্যে᳖ন॒ প্রাশ্না॑মি ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উপহূতেত্যস্য ঋষি স এব । দ্যাবাপৃথিবী দেবতে । ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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