यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 24
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - त्वष्टा देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
207
सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳ शि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ विद॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो यद्विलि॑ष्टम्॥२४॥
स्वर सहित पद पाठसम्। वर्च॑सा। पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳕। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥२४॥
स्वर रहित मन्त्र
सँवर्चसा पयसा सन्तनूभिरगन्महि मनसा सँ शिवेन । त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। वर्चसा। पयसा। सम्। तनूभिः। अगन्महि। मनसा। सम्। शिवेन। त्वष्टा। सुदत्र इति सुऽदत्रः। वि। दधातु। रायः। अनु। मार्ष्टु। तन्वः। यत्। विलिष्टमिति विऽलिष्टम्॥२४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
तेन यज्ञेन वयं किं किं प्राप्नुम इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
वयं यस्य कृपया वर्च्चसा पयसा मनसा शिवेन तनूभिश्च सह रायः समगन्महि। सुदत्रस्त्वष्टेश्वरः कृपयाऽस्मभ्यं रायः संविदधातु यदस्माकं तन्वो विलिष्टं तत्समनुमार्ष्टु॥२४॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (वर्चसा) वर्चन्ते दीप्यन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् वेदाध्ययने तेन (पयसा) पयन्ते विजानन्ति सर्वान् पदार्थान् येन ज्ञानेन तेन (सम्) सन्धानार्थे (तनूभिः) तन्वते सुखानि कर्माणि च यासु ताभिः (अगन्महि) प्राप्नुमः। गमधातोर्लुङि उत्तमबहुवचने। मन्त्रे घसह्वरणश॰ (अष्टा॰२.४.८०) अनेन च्लेर्लुक्। म्वोश्च (अष्टा॰८.२.६५) अनेन मकारस्य नकारादेशः। अत्र लडर्थे लुङ् (मनसा) मन्यन्ते ज्ञायन्ते सर्वे व्यवहारा येनान्तःकरणेन तेन (सम्) मिश्रीभावे (शिवेन) सर्वसुखनिमित्तेन (त्वष्टा) त्वक्षति तनूकरोति दुःखानि प्रलये सर्वान् पदार्थान् छिनत्ति वा स जगदीश्वरः (सुदत्रः) सुष्ठु सुखं ददातीति सः (विदधातु) विधानं करोतु (रायः) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यश्रियादीनि धनानि (अनु) पश्चादर्थे (मार्ष्टु) शोधयतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) यावत् (विलिष्टम्) परिपूर्णम्। अत्र विरुद्धार्थे विशब्दः॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.९.३.६) व्याख्यातः॥२४॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वकामप्रदस्येश्वरस्याज्ञापालनसम्यक्पुरुषार्थाभ्यां विद्याध्ययनं, विज्ञानं, शरीरबलं, मनःशुद्धिः, कल्याणसिद्धिः, सर्वोत्तमश्रीप्राप्तिश्च सदैव कार्य्या। तथा सर्वे व्यवहाराः पदार्थाश्च नित्यं शुद्धा भावनीयाः॥२४॥
विषयः
तेन यज्ञेन वयं कि कि प्राप्नुम इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
वयं यस्य कृपया वर्चसा वर्चन्ते=दीप्यन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् वेदाध्ययने तेन पयसा पयन्ते=विजानन्ति सर्वान् पदार्थान् येन ज्ञानेन तेन मनसा मन्यन्ते=ज्ञायन्ते सर्वे व्यवहारा येनाऽन्तःकरणेन तेन शिवेन सर्वसुखनिमित्तेन तनूभिः तन्वते सुखानि कर्माणि च यासु ताभिः च सहः रायः विद्याचक्रवर्त्तिराज्यक्रियादीनि धनानि सम्+अगन्महि सम्यक् प्राप्नुमः ।
सुदत्रः सुष्ठ सुख ददातीति स त्वष्टा=ईश्वरः त्वक्षति=तनूकरोति दुःखानि प्रलये सर्वान् पदार्थान् छिनत्ति वा स जगदीश्वरः कृपयाऽस्मभ्यं रायः विद्याचक्रवर्त्तिराज्यक्रियादीनि धनानि सम्+वि+दधातु ससन्धानं विधानं करोतु ।
यद् यावद् अस्माकं तन्वः शरीरस्य विलिष्टं परिपूर्णं तत्समनुमार्ष्टुं मिश्रीभावेन पश्चात् शोधयतु ॥ २ । २४ ॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे (वर्चसा) वर्चन्ते दीप्यन्ते सर्व पदार्था यस्मिन् वेदाध्ययने तेन (पयसा) पयन्ते विजानन्ति सर्वान् पदार्थान् येन ज्ञानेन तेन (सम्) संधानार्थे (तनूभिः) तन्वते सुखानि कर्माणि च यासु ताभिः (अगन्महि) प्राप्नुमः। गमधातोर्लुङि उत्तमबहुवचने। मंत्रेघसह्वरणश० ॥अ॰ २।४। ६० ॥ अनेन च्लेर्लुक। म्वोश्च ॥ ८।२। ६५ ॥ अनेन मकारस्य नकारादेशः । अत्र लडर्थे लङ् (मनसा) मन्यन्ते ज्ञायन्ते सर्व व्यवहारा येनान्तःकरणेन तेन (सम्) मिश्रीभावे (शिवेन) सर्वसुखनिमित्तेन (त्वष्टा) त्वक्षति तनूकरोति दुःखानि प्रलये सर्वान् पदार्थान् छिनत्ति वा स जगदीश्वरः (सुदत्रः) सुष्ठु सुखं ददातीति सः (विदधातु) विधानं करोतु (रायः) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यश्रियादीनि धनानि (अनु) पश्चादर्थे (मार्ष्ट) शोधयतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) यावत् (विलिष्टम्) परिपूर्णम् । अत्र विरुद्धार्थे विशब्दः । अयं मंत्रः श० १।९ ।३।६ व्याख्यातः ॥ २४ ॥
भावार्थः
[सुदत्र...ईश्वरः कृपयाऽस्मभ्यं रायः संविदधातु, वयं यस्य कृपया वर्चसा, पयसा, मनसा, शिवेन, तनूभिश्च सह रायः समगन्महि]
मनुष्यैः सर्वकामप्रदस्येश्वरस्याज्ञापालन--सम्यक् पुरुषार्थाभ्यां विद्याध्ययनं, विज्ञानं, शरीरबलमनःशुद्धिः, कल्याणसिद्धिः, सर्वोत्तमश्रीप्राप्तिश्च सदैव कार्या।
[यदस्माकं तन्वो विलिष्टं तत् समनुमार्ष्टुं]
तथा--सर्वे व्यवहाराः पदार्थाश्च नित्यं शुद्धा भावनीयाः ॥ २ । २४ ॥
भावार्थ पदार्थः
वर्चसा=विद्याध्ययेन। पयसा=विज्ञानेन। मनसा=मनःशुद्धया । शिवेन=कल्याणसिद्धया। तनूभिः=शरीरबलशुद्धया। राय:=सर्वोत्तमश्रियः॥
विशेषः
वामदेवः । त्वष्टा=ईश्वरः। विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
हिन्दी (6)
विषय
उक्त यज्ञ से हम लोग किस-किस पदार्थ को प्राप्त होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥
पदार्थ
हम लोग पुरुषार्थी होकर (वर्चसा) जिस में सब पदार्थ प्रकाशित होते हैं, उस वेद का पढ़ना वा (पयसा) जिससे पदार्थों को जानते हैं, उस ज्ञान (मनसा) जिससे सब व्यवहार विचारे जाते हैं, उस अन्तःकरण (शिवेन) सब सुख और (तनूभिः) जिन में विपुल सुख प्राप्त होते हैं, उन शरीरों के साथ (रायः) श्रेष्ठ विद्या और चक्रवर्त्तिराज्य आदि धनों को (समगन्महि) अच्छी प्रकार प्राप्त हों सो (सुदत्रः) अच्छी प्रकार सुख देने और (त्वष्टा) दुःखों तथा प्रलय के समय सब पदार्थों को सूक्ष्म करने वाला ईश्वर कृपा करके हमारे लिये (रायः) उक्त विद्या आदि पदार्थों को (संविदधातु) अच्छी प्रकार विधान करे और हमारे (तन्वः) शरीर को (यत्) जितनी (विलिष्टम्) व्यवहारों की सिद्धि करने की परिपूर्णता है, उसे (समनुमार्ष्टु) अच्छी प्रकार निरन्तर शुद्ध करे॥२४॥
भावार्थ
मनुष्यों को सब कामना परिपूर्ण करने वाले परमेश्वर की आज्ञा पालन करके और अच्छी प्रकार पुरुषार्थ से विद्या का अध्ययन, विज्ञान, शरीर का बल, मन की शुद्धि, कल्याण की सिद्धि तथा उत्तम से उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति सदैव करनी चाहिये। इस सम्पूर्ण यज्ञ की धारणा वा उन्नति से सब सुखों को प्राप्त होके औरों को सुख प्राप्त कराना चाहिये तथा सब व्यवहार और पदार्थों को नित्य शुद्ध करना चाहिये॥२४॥
विषय
उक्त यज्ञ से हम लोग क्या-क्या प्राप्त करते हैं, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ
जिसकी कृपा से (वर्च्चसा) जिसमें सब पदार्थ चमक उठते हैं, उस वेदाध्ययन से (पयसा) जिससे सब पदार्थों को जानते हैं, उस ज्ञान से (मनसा) जिससे सब व्यवहार जाने जाते हैं, उस अन्तःकरण से (शिवेन) सब सुखों के हेतु (तनूभिः) जिनसे सब सुखों और शुभकर्मों का विस्तार करते हैं, उन शरीरों के साथ (रायः) विद्या, चक्रवर्त्ति-राज्यलक्ष्मी आदि धनों को (समगन्महि) अच्छी प्रकार प्राप्त करते हैं।
वह (सुदत्रः) उत्तम सुखों का दाता (त्वष्टा) सब दुःखों को हल्का करने वाला तथा प्रलय-काल में सब पदार्थों को सूक्ष्म करने वाला जगदीश्वर कृपा करके हमें (रायः) विद्या तथा चक्रवर्त्ति-राज्यलक्ष्मी आदि धनों से (संविदधातु) सदा संयुक्त रखें।
(यत्) जितनी हमारी (तन्वः) शरीर के व्यवहारों की (विलिष्टम्) परिपूर्णता है उसको(सम्+अनु+मार्ष्टु) हम से संयुक्त करके शुद्ध करे॥२।२४॥
भावार्थ
मनुष्य, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले ईश्वर की आज्ञा का पालन तथा उत्तम पुरुषार्थ के द्वारा विद्या-अध्ययन, विज्ञान, शरीरबल और मन की शुद्धि, कल्याण की सिद्धि और सर्वोत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति सदा करें।
तथा--सब व्यवहार और पदार्थों का सदा शुद्ध रखें॥२।२४॥
भाष्यसार
१. ईश्वर--उत्तम सुखों का दाता, क्लेशों का तनूकर्त्ता, और प्रलय समय में सब पदार्थों का छेदक है। २. यज्ञ से प्राप्ति--ईश्वर की आज्ञा रूप यज्ञानुष्ठान से विद्या, विज्ञान, मन की शुद्धि, कल्याण-सिद्धि, शारीरिक बल का यथोचित प्रयोग रूप शुद्धि, सर्वोत्तम वेदविद्या और चक्रवर्ती राज्य आदि ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
३. ईश्वर-प्रार्थना--हे सब सुखों के दाता तथा सब दुःखों के तनूकर्त्ता ईश्वर! आप कृपा करके हमें विद्या और चक्रवर्ती राज्य आदि ऐश्वर्य प्रदान कीजिए। जब तक हमारे शरीर की परिपूर्णता हो तब तक उसे आप उत्तम रीति से अनुकूल, शुद्ध रखिये। आपकी कृपा से हम लोग विद्या, विज्ञान, मन की शुद्धि, कल्याणसिद्धि, शारीरिक बल, वेद विद्या और चक्रवर्ती राज्य आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त हो॥२।२४॥
विशेष
वामदेवः। त्वष्टा=ईश्वरः। विराट् त्रिष्टुप्। धैवतः॥
विषय
अनुमार्जन
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के अनुसार राक्षसी वृत्तियों को दूर भगाने पर मनुष्य यह प्रार्थना कर सकता है कि हम ( वर्चसा ) = रोग-कृमियों के साथ सफलता से संघर्ष कर सकनेवाली वर्चस् शक्ति से ( समगन्महि ) = सङ्गत हों। हमारे अन्दर प्राणशक्ति हो।
२. ( पयसा ) = एक-एक अङ्ग की शक्ति के आप्यायन से हम सङ्गत हों [ ओप्यायी वृद्धौ ]।
३. ( तनूभिः ) = [ तन् विस्तारे ] शक्तियों के विस्तारवाले शरीरों से ( समगन्महि ) = हम युक्त हों, और —
४. इन सबसे बढ़कर ( शिवेन मनसा ) = शिव सङ्कल्पवाले मन से ( सम् ) = सङ्गत हों। राक्षसी वृत्तियों के दूर करने से प्राणशक्ति की रक्षा होकर सब अङ्गों का आप्यायन होता है, सब अङ्गों का विस्तार होकर शरीर सचमुच ‘तनू’ इस सार्थक नामवाला होता है और मन शिवसंकल्पों से युक्त हो जाता है।
५. ( त्वष्टा ) = हम सबके रूपों को सुन्दर बनानेवाला [ त्वष्टा रूपाणि पिंशतु—ऋ १०।१८४।१ ] देवशिल्पी ( सु-द-त्रः ) = उत्तमोत्तम साधन व शक्तियाँ प्राप्त कराके हमारा त्राण करनेवाला प्रभु हमें ( रायः ) = [ रा दाने ] दान दिये जानेवाले धनों को ( विदधातु ) = दे। हमें वे धन प्राप्त हों, जिनसे हम ‘कु-बेर’ [ कुत्सित शरीरवाले ] न बन जाएँ। हमें वे धन प्राप्त हों जिन्हें प्राप्त करके हम विलासमग्न होकर निधन = मृत्यु की ओर न चले जाएँ। प्रभु सुदत्र हैं, वे निकृष्ट धन क्यों देंगे ?
६. वे प्रभु कृपा करके ( तन्वः ) = हमारे शरीरों की ( यत् ) = जो भी ( विलिष्टम् ) = विशेष अल्पता-न्यूनता है [ लिश् अल्पीभावे ] उसे ( अनुमार्ष्टु ) = दूर करें, उसका शोधन कर डालें। न्यूनताओं से दूर होकर हमारे शरीर सुन्दर-ही-सुन्दर हों।
भावार्थ
भावार्थ — हम वर्चस्, आप्यायन, शक्ति-विस्तार व शिव मन से सङ्गत हों। धन का दान देनेवाले हों और अपनी न्यूनताओं का शोधन करें।
पदार्थ
पदार्थ = ( वर्चसा ) = वेदों के स्वाध्याय और योगाभ्यास करने से प्राप्त जो ब्रह्मतेज ( पयसा ) = पुष्टिकारक दुग्ध घृतादि ( तनूभिः ) = नीरोग शरीर और ( शिवेन मनसा ) = कल्याणकारी पवित्र मन से ( सम् अगन्महि ) = सम्यक् संयुक्त रहें ( सुदत्र: ) = श्रेष्ठ पदार्थों का दाता, ( त्वष्टा ) = जगत् उत्पादक प्रभु हमें ( रायः ) = अनेक प्रकार का धन ( विदधातु ) = प्रदान करे । ( तन्वः ) = हमारे शरीर में ( यत् ) = जो विलिष्टम् विपरीत अनिष्ट, उपघातक पदार्थ हो उसको ( अनुमार्ष्टु ) = शुद्ध करें वा दूर करें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जगत् पिता अनेक - उत्तम पदार्थों के प्रदाता परमेश्वर ! अपनी अपार कृपा से, हमें वेदों के स्वाध्यायशील, शरीर की पुष्टि करनेवाले अनेक खाद्य पदार्थों के स्वामी, नीरोग ऐश्वर्य शरीरवाले और कल्याणकारी शूद्र मन से युक्त बनावें । हे सकल के स्वामी इन्द्र ! हम कभी दरिद्री, दीन, मलीन, पराधीन, रोगी न हों, किन्तु सुखी रहते हुए उत्तम-उत्तम पदार्थों के स्वामी हों।
विषय
शुद्ध मनन शक्ति, तेज और ऐश्वर्यों की वृद्धि और शुद्धि की प्रार्थना।
भावार्थ
हम लोग ( वर्चसा ) तेन ( पयसा ) पुष्टि, ( तनुभिः ) दृढशरीरों और ( शिवेन मनसा ) कल्याणकारी शुद्ध चित्त या मनन शक्ति से ( सम् ३ अगन्महि ) भली प्रकार संयुक्त रहें । ( सुदत्रः ) उत्तन २ पदार्थों का दाता (त्वष्टा) सर्वोत्पादक परमेश्वर हमें (रायः ) समस्त ऐश्वर्य ( विदधातु ) प्रदान करे और ( तन्वः ) हमारे शरीर में ( यत् ) जो कुछ (विलिष्टम् ) विपरीत, अनिष्टजनक, प्राणोपघातक पदार्थ हों उसको (अनुमार्ष्टु ) शुद्ध करे, दूर करे || शत० १ । ९ । ३ । ६ ॥
टिप्पणी
२४ – विलीष्टन्' इति शत० । इतः आरभ्य आ अध्यायपरिसमाप्ते ऋषिः सु एवेति दयानन्द । प्रजापतिः परमेष्ठी वामदेवो वेति सन्दिह्यते ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
त्वष्टा देवता । बिष्ठ त्रिष्टुप् ।धैवतः॥
विषय
नीरोग शरीर और मन
शब्दार्थ
हम लोग (वर्चसा) ब्रह्मतेज से (पयसा) अन्न और जल से (तनूभिः) दृढ़ और नीरोग शरीरों से (शिवेन मनसा) शिवसंकल्प-युक्त मन में (सम् अगन्महि) भली प्रकार संयुक्त रहें । (सु-दत्र:) उत्तम-उत्तम पदार्थों का दाता (त्वष्टा) सर्वोत्पादक परमात्मा हम सबको (रायः) धन-विद्या और सदाचाररूपी धन (विदधातु) प्रदान करे और (तन्व:) हमारे शरीरों में (यत्) जो कुछ (विलिष्टम्) प्राण घातक पदार्थ हों उनको (अनुमार्ष्टु) शुद्ध करे ।
भावार्थ
१. हम लोग ब्रह्मतेज से युक्त रहें । २. अन्न और जल-शरीर-सञ्चालनार्थ आवश्यक भोग्य सामग्री हमें प्राप्त होती रहे । ३. हमारे शरीर पत्थर के समान दृढ़ और नीरोग हों जिससे आन्तरिक और बाह्य शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण न कर सकें । ४. मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में शारीरिक स्वास्थ्य भी समाप्त हो जाता है, अतः हमारा मन भी स्वस्थ और शिवसंकल्पवाला हो । ५. सृष्टिकर्त्ता परमात्मा हमारे लिए विद्याधन, ज्ञानधन, विज्ञान-धन, सदाचार-धन आदि नाना प्रकार के धन प्राप्त कराए । ६. हमारे शरीरों में जो हानि पहुँचानेवाले तत्त्व हैं उन्हें शुद्ध करके हमारे शरीरों में जो न्यूनता है उसे पूर्ण कर दे ।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी सर्व कामना पूर्ण करणाऱ्या ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन केले पाहिजे व चांगल्या प्रकारे पुरुषार्थ करून विद्येचे अध्ययन, विज्ञान, शारीरिक सामर्थ्य, मनःशुद्धी, कल्याणाची प्राप्ती करून घेऊन उत्तम लक्ष्मी मिळविली पाहिजे. याप्रमाणे उपरोक्त यज्ञ करावा व उन्नती करून सर्व सुख प्राप्त करून घ्यावे. तसेच इतरांनाही सुखी करावे. सर्व पदार्थ व सर्व व्यवहार नेहमी शुद्ध ठेवावेत.
विषय
यज्ञाद्वारे आम्ही कोणकोणते पदार्थ प्राप्त करू शकतो, हा विषय पुढील मंत्रात विशद केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - आम्ही सर्व जणांनी पुरुषार्थी व्हावे आणि (वर्चसा) ज्यात सर्व पदार्थांविषयी प्रकाश केला आहे, त्या वेदांचे पठन-अध्ययन करून व (पयसा) ज्याद्वारे पदार्थांना जाणले जाते, त्या ज्ञानास प्राप्त करून (मनसा) ज्याद्वारे सर्व व्यवहाराविषयी विचार केला जातो. त्या अन्त:करणासह (शिवेन) सर्व सुखांसह (तनूभि:) ज्याद्वारे विपुल सुज्ञाची प्राप्ती शक्य होते, त्या शरीरासह (राय:) श्रेष्ठ विद्या आणि चक्रवर्ती राज्य आदी संपत्तीना (समगन्महि) चांगल्या प्रकारे प्राप्त करू, असे व्हावे. तो (सुदत्र:) उत्तम सुख देणारा (त्वष्टा) दु:खांचा नाश करणारा आणि प्रलयकाली सर्व पदार्थांना सूक्ष्म करणारा ईश्वर कृपा करून आम्हांस (राय:) उक्त विद्यादी पदार्थ (संविदधातू) प्रदान करो. तसेच आमच्या (तन्व:) शरीरात (यथ्) जी (विलिष्टम्) कर्म व व्यवहार करण्याची जी परिपूर्ण क्षमता आहे, त्याला (समनुमार्ष्टु) चांगल्या प्रकारे शुद्ध करो (आमच्या कार्यक्षमतेस शक्ती देवो) ॥24॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी सर्व कामना परिपूर्ण करणार्या परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करावे. उत्तम पुरूषार्थ करीत विद्याध्ययन करावे, शारीरिक बळ मिळवावे, मन शुद्ध ठेवावे स्व:चे कल्याण साधावे आणि उत्तमोत्तम लक्ष्मी (धनसंपत्ती) ची प्राप्ती सदैव करावी. यज्ञाचे अनुष्ठान व परिपूर्णता करून स्वत: सुखी व्हावे आणि इतरांनाही सुखी करावे. तसेच सर्व कार्यात आणि पदार्थात शुद्धता ठेवावी (दुराचार करू नये, अस्वच्छता ठेवूं नये) ॥24॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May we be endowed with the study of the Vedas, knowledge, stout bodies, peaceful and devoted minds. May God, the Giver of happiness grant us riches, and banish each blemish from our body.
Meaning
May Lord Tvashta, eternal maker and generous giver, bless us with lustre of character and light of knowledge, food for body, mind and senses, peace and nobility of mind, good and glowing health of body. May the Lord grant us all kinds of wealth and stability. May He complete and perfect whatever is wanted in our body and mind and refine us with culture and virtue. Let us advance with holy light and lustre, honey- sweets of food and blooming health, and a mind at peace with noble aspirations, and attain all round prosperity. And may Tvashta, Eternal Maker and generous giver, complete what is lacking in our life and refine us to a state of perfection.
Translation
May we be blessed with intellectual lustre, vigour, bodies and noble mind. May liberally-giving cosmic architect provide us with riches and remove every blemish from our bodies. (1)
Notes
Sam aganmahi, सगता भवाम ; may be blessed with. Tvasta, cosmic architect; developer and shaper of the forms of the living beings. Sudatrah, सुष्ठु ददाति इति सुदत्रः, liberally-giving. Vilistam, विलिष्ट विश्लिष्टम्, blemish, defect.
बंगाली (2)
विषय
তেন য়জ্ঞেন বয়ং কিং কিং প্রাপ্নুম ইত্যুপদিশ্যতে ॥
উক্ত যজ্ঞে আমরা কী কী পদার্থ প্রাপ্ত হই উহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশিত করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- আমরা পুরুষকার সম্পন্ন হইয়া (বর্চ্চসা) যাহাতে সকল পদার্থ প্রকাশিত হয় সেই বেদের পঠন বা (পয়সা) যদ্দ্বারা পদার্থকে জানি সেই জ্ঞান (মনসা) যদ্দ্বারা সব ব্যবহারকে বিচার করা হয় সেই অন্তঃকরণ (শিবেন) সব সুখ এবং (তনূভিঃ) যাহাতে বিপুল সুখ প্রাপ্ত হয় সেই শরীরগুলি সহ (রায়ঃ) শ্রেষ্ঠ বিদ্যা এবং চক্রবর্ত্তি রাজ্য ইত্যাদি ধনসকলকে (সমগন্মহি) সম্যক্ প্রকার প্রাপ্ত হই অতএব, (সুদত্রঃ) সম্যক্ প্রকার সুখ প্রদান করিবার এবং (ত্বষ্টা) দুঃখ ও প্রলয়ের সময় সর্ব পদার্থসকলকে সূক্ষ্মকারী ঈশ্বর কৃপা করিয়া আমাদের জন্য (রায়ঃ) উক্ত বিদ্যাদি পদার্থ কে (সংবিদধাতু) উত্তম প্রকার বিধান করুন এবং আমাদের (তন্বঃ) শরীরের (য়ৎ) যত (বিলিষ্টম্) ব্যবহার সিদ্ধি করার পরিপূর্ণতা আছে তাহাকে (সমনুমাষ্টুং) ভাল প্রকার নিরন্তর শুদ্ধ করুন ॥ ২৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের সকল কামনা পরিপূর্ণকারী পরমেশ্বরের আজ্ঞা পালন করিয়া এবং সম্যক্ প্রকার পুরুষকার দ্বারা বিদ্যাধ্যয়ন, বিজ্ঞান, শরীরের বল, মনের শুদ্ধি, কল্যাণ-শুদ্ধি এবং উত্তমোত্তম লক্ষ্মীর প্রাপ্তি সর্বদা করা উচিত । এই সম্পূর্ণ যজ্ঞের ধারণা বা উন্নতি দ্বারা সকল সুখের প্রাপ্তি হইয়া অপরকে সুখ প্রাপ্ত করান উচিত এবং সকল ব্যবহার ও পদার্থ সকলকে নিত্য শুদ্ধ করা উচিত ॥ ২৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সং বর্চ॑সা॒ পয়॑সা॒ সং ত॒নূভি॒রগ॑ন্মহি॒ মন॑সা॒ সꣳ শি॒বেন॑ ।
ত্বষ্টা॑ সু॒দত্রো॒ বি দ॑ধাতু॒ রায়োऽনু॑ মার্ষ্টু ত॒ন্বো᳕ য়দ্বিলি॑ষ্টম্ ॥ ২৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সং বর্চসেত্যস্য ঋষিঃ স এব । ত্বষ্টা দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
সংবর্চসা পয়সা সং তনূভিরগন্মহি মনসা সংশিবেন ।
ত্বষ্টা সুদত্রো বিদধাতু রায়োঽনুমার্ষ্টু তন্বো যদ্বিলিষ্টম্।।২০।।
(যজু ২।২৪)
পদার্থঃ (বর্চসা) বেদের স্বাধ্যায় এবং যোগাভ্যাস দ্বারা প্রাপ্ত ব্রহ্মতেজ, (পয়সা) পুষ্টি কারক দুগ্ধ ঘৃতাদি, (তনূভিঃ) নীরোগ শরীর এবং (সম্ শিবেন মনসা) প্রকৃষ্ট কল্যাণকারী পবিত্র মন দ্বারা (সম্ অগন্মহি) আমরা সম্যক সংযুক্ত থাকি। (সুদত্রঃ) শ্রেষ্ঠ পদার্থের দাতা, (ত্বষ্টা) জগৎ উৎপাদক, আমাদের (রায়ঃ) অনেক প্রকারের ধন (বিদধাতু) প্রদান করেন। (তন্বঃ) আমাদের শরীরে (যৎ) যে (বিলিষ্টম্) বিপ্রীত, অনিষ্ট, উপঘাতক পদার্থ রয়েছে তা (অনুমার্ষ্টু) শুদ্ধ করেন বা দূর করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে জগৎপিতা, উত্তম পদার্থের প্রদাতা! তোমার অপার কৃপা দ্বারা আমাদেরকে স্বাধ্যায়শীল করো, শরীরের পুষ্টিকারক খাদ্য প্রদান ও নীরোগ করো এবং কল্যাণকারী শুদ্ধ মনযুক্ত করো। হে সকল ঐশ্বর্যের অধিপতি! আমরা কখনো যেন দরিদ্র, মলিন, পরাধীন, রোগী না হই, বরং সদা সুখী থেকে উত্তম উত্তম পদার্থ লাভ করি।।২০।।
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