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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    119

    सं ब॒र्हिर॑ङ्क्ता ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ समा॑दि॒त्यैर्वसु॑भिः॒ सम्म॒रुद्भिः। समिन्द्रो॑ वि॒श्वदे॑वेभिरङ्क्तां दि॒व्यं नभो॑ गच्छतु॒ यत् स्वाहा॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। ब॒र्हिः। अ॒ङ्क्ता॒म्। ह॒विषा॑। घृ॒तेन॑। सम्। आ॒दि॒त्यैः। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। सम्। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। सम्। इन्द्रः॑। वि॒श्वदे॑वेभि॒रिति॑ वि॒श्वऽदे॑वेभिः। अ॒ङ्क्ता॒म्। दि॒व्यम्। नभः॑। ग॒च्छ॒तु॒। यत्। स्वाहा॑ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्बर्हिरङ्क्ताँ हविषा घृतेन समादित्यैर्वसुभिः सम्मरुद्भिः । समिन्द्रो विश्वदेवेभिरङ्क्तान्दिव्यन्नभो गच्छतु यत्स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। बर्हिः। अङ्क्ताम्। हविषा। घृतेन। सम्। आदित्यैः। वसुभिरिति वसुऽभिः। सम्। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। सम्। इन्द्रः। विश्वदेवेभिरिति विश्वऽदेवेभिः। अङ्क्ताम्। दिव्यम्। नभः। गच्छतु। यत्। स्वाहा॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अग्नौ हुतं द्रव्यमन्तरिक्षस्थं भूत्वा केन चरतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य! भवानिदं यद्यदा होतव्यं द्रव्यं हविषा घृतेन सह संयुक्तं कृत्वाऽऽदित्यैर्वसुभिर्मरुद्भिः सह सुखं समङ्क्ताम्। अयमिन्द्रो यज्ञे स्वाहा यत्सुगन्ध्यादि द्रव्ययुक्तं हविः समङ्क्ताम्, यत्संमिश्रितैर्विश्वदेवेभिर्दिव्यं नभः संगच्छतु सम्यक् प्रकटयति॥२२॥

    पदार्थः

    (सम्) एकीभावे क्रियायोगे (बर्हिः) बृहन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् तदन्तरिक्षम्। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् (निघं॰१.३) (अङक्ताम्) संयोजयतु (हविषा) होतुमर्हं शुद्धं संस्कृतं हविस्तेन (घृतेन) सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेनाज्येन सह (सम्) संयोगार्थे (आदित्यैः) द्वादशभिर्मासैः (वसुभिः) अग्न्यादिभिरष्टभिः (सम्) मिश्रीभावे (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (सम्) मेलने (इन्द्रः) सूर्य्यलोकः (विश्वदेवेभिः) स्वकीयै रश्मिभिः। रश्मयो ह्यस्य विश्वेदेवाः (शत॰३.९.२.६) (अङ्क्ताम्) प्रकटं संयोजयति (दिव्यम्) दिवि प्रकाशे भवम्। द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत् (अष्टा॰४.२.१०९) इति शैषिको यत्। (नभः) जलम्। नभ इत्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (गच्छतु) गच्छति (यत्) यदा (स्वाहा) शोभनं हविर्जुहोति यया क्रियया सा॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.७.३.२९-३१) व्याख्यातः॥२२॥

    भावार्थः

    यज्ञे संशोधितं यद्धविरग्नौ प्रक्षिप्यते तदन्तरिक्षे वायुजलसूर्य्यकिरणैः सह वर्त्तमानमितस्ततो गत्वाऽऽकाशस्थान् सर्वान् पदार्थान् दिव्यान् कृत्वा सततं प्रजाः सुखयति तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरुत्तमसामग्र्या श्रेष्ठैः साधनैस्त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति॥२२॥

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    विषयः

    अग्नौ हुतं द्रव्यमन्तरिक्षस्थं भूत्वा केन चरतीत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्य ! भवानिदं यत् यदा होतव्यं द्रव्यं हविषा होतुमर्हं शुद्धं संस्कृतं हविस्तेन घृतेन सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेनाऽऽज्येन (सह) सह संयुक्तं कृत्वाऽऽदित्यै द्वादशभिर्मासैः वसुभिः अग्न्यारिभिरष्टभिः मरुद्भिः सह वायुविशेषैः सह [बर्हिः] बृहन्ते सर्वे पदार्था यस्मिंस्तदन्तरिक्षं सुखं सम्+अङ्क्ताम् एकीभावेन संयोजयतु।

    अयमिन्द्रः सूर्यलोको यज्ञे स्वाहा शोभनं हविर्जुहोति यया क्रियया सा यत्सुगन्ध्यादि द्रव्य-युक्तं हविः सम्+अङ्क्तां मेलनेन प्रकटं योजयति ।

    यत्सम्मिश्रितैर्विश्वदेवेभिः स्वकीयै रश्मिभिः दिव्यं दिवि प्रकाशे भवं नभो जलं सम्+गच्छतु=सम्यक् प्रकटयति मिश्रीभावेन गच्छति ॥ २ । २२ ॥

    पदार्थः

    (सम्) एकीभावे क्रियायोगे (बर्हिः) बृहन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् तदन्तरिक्षम् । बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ निघं॰ १ ॥ ३॥ (अङ्काम्) संयोजयतु (हविषा) होतुमर्हं शुद्धं संस्कृतं हविस्तेन (घृतेन) सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेनाज्येन सह (सम्) संयोगार्थे (आदित्यैः) द्वादशभिर्मासैः (वसुभिः) अग्न्यादिभिरष्टभिः (सम्) मिश्रीभावे (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (सम्) मेलने (इन्द्रः) सूर्यलोकः (विश्वदेवेभिः) स्वकीयै रश्मिभिः । रश्मयो ह्यस्य विश्वदेवाः ॥ श० ३ । ७ । ३ । ६ ॥ (अङ्काम्) प्रकटं संयोजयति (दिव्यम्) दिवि प्रकाशे भवम् । द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत् । अ ४ । २ । १०१ ॥ इति शैषिको यत् (नभः) जलम् । नभ इत्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ॥ (गच्छतु) गच्छति (यत्) सदा (स्वाहा) शोभनं हविर्जुहोति यया क्रियया सा ॥ अयं मंत्रः श० १ । ९ । २–-३१ व्याख्यातः ॥ २२ ॥

    भावार्थः

    [हे मनुष्य ! भवा निदं.....होतव्यं द्रव्यं हविषा घृतेन सह संयुक्तं कृत्वाऽऽदित्यैर्वसुभिर्मरुद्भिः सह [बर्हिः ] सुखं समङ्क्ताम् विश्वदेवेभिर्दिव्यं नभः संगच्छतु]

    यज्ञे संशोधितं यद्धविरग्नौ प्रक्षिप्यते तदन्तरिक्षे वायुजलसूर्यकिरणैः सह वर्तमानमितस्ततो गत्वाऽऽकाशस्थान् सर्वान् पदार्थान् दिव्याम् कृत्वा सततं प्रजाः सुखयति ।

    [तात्पर्यमाह-]

    तस्मात्—सर्वैर्मनुष्यैरुत्तमसामग्र्या श्रेष्ठैः साधनैस्त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति ॥ २ ।२२॥

    विशेषः

    वामदेवः ! इन्द्रः=सूर्यः ॥ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    यज्ञ में चढ़ा हुआ पदार्थ अन्तरिक्ष में ठहर कर किसके साथ रहता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य! तुम (यत्) जब हवन करने योग्य द्रव्य को (हविषा) होम करने योग्य (घृतेन) घी आदि सुगन्धियुक्त पदार्थ से संयुक्त करके हवन करोगे, तब वह (आदित्यैः) बारह महीनों (वसुभिः) अग्नि आदि आठों निवास के स्थान और (मरुद्भिः) प्रजा के जनों के साथ मिल के सुख को (समङ्क्ताम्) अच्छी प्रकार प्रकाश करेगा। (इन्द्रः) सूर्य्यलोक जो यज्ञ में छोड़ा हुआ (स्वाहा) उत्तम क्रिया से सुगन्ध्यादि पदार्थयुक्त हवि (संगच्छतु) पहुँचाता है, उससे (सम्) अच्छी प्रकार मिश्रित हुए (विश्वदेवेमिः) अपनी किरणों से (दिव्यम्) जो उस के प्रकाश में इकट्ठा होने वाला (नभः) जल को (समङ्क्ताम्) अच्छी प्रकार प्रकट करता है॥२२॥

    भावार्थ

    जो हवि अच्छी प्रकार शुद्ध किया हुआ यज्ञ के निमित्त अग्नि में छोड़ा जाता है, वह अन्तरिक्ष में वायु जल और सूर्य्य की किरणों के साथ मिल कर इधर-उधर फैल कर आकाश में ठहरने वाले सब पदार्थों को दिव्य करके अच्छी प्रकार प्रजा को सुखी करता है। इससे मनुष्यों को उत्तम सामग्री और उत्तम-उत्तम साधनों से उक्त तीन प्रकार के यज्ञ का नित्य अनुष्ठान करना चाहिये॥२२॥

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    विषय

    यज्ञ में होम किया हुआ पदार्थ अंतरिक्ष में ठहर कर किसके साथ रहता है,यह उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे मनुष्य! आप यह (यत्) जो हवन करने योग्य द्रव्य है (हविषा) इसको शुद्ध आहुति रूप (घृतेन ) सुगन्धि आदि गुणों से युक्त घृत के साथ (सम्) संयुक्त=मिला करके (आदित्यैः) बारह मास, (वसुभिः) अग्नि आदि आठ वसु और (मरुद्भिः) वायु-विशेषों के साथ [बर्हिः] अन्तरिक्ष को सुख से (सम्+अङ्कताम्) एकीभावपूर्वक संयुक्त कीजिये।

    यह (इन्द्रः) सूर्य्यलोक यज्ञ में (स्वाहा) सुगन्धि आदि गुणों से युक्त हवि को (सम्+अंकताम्) प्रकट रूप में संयुक्त करता है।

    संयुक्त हुई (विश्वदेवेभिः) अपनी किरणों से (दिव्यम्) द्युलोक में विद्यमान (नभः) जल को (सम्) गच्छतु अच्छे प्रकार मेलपूर्वक प्रकट करता है॥२।२२॥

    भावार्थ

    यज्ञ में शुद्ध किया हुआ जो हवि अग्नि में डाला जाता है वह आकाश में वायु, जल और सूर्य किरणों के साथ रहकर, इधर-उधर जाकर आकाश के सब पदार्थों को दिव्य गुणों से युक्त बनाकर निरन्तर प्रजा को सुख देता है।

     इसलिए--सब मनुष्य उत्तम सामग्री एवं श्रेष्ठ साधनों से तीन प्रकार के यज्ञ का नित्य अनुष्ठान करें॥२।२२॥

    भाष्यसार

    होम के योग्य द्रव्य--प्रथम यज्ञ में होम करने योग्य द्रव्य को घी में मिलावें फिर बारह महीने निरन्तर अग्नि और वायु आदि के सहयोग से उसे अन्तरिक्ष में स्थित करें। अन्तरिक्षस्थ सूर्य यज्ञ में होम किये हुये सुगन्धि आदि से युक्त घृत को मिश्रित कर देता है। फिर वह मिश्री भाव को प्राप्त हवि रूप घृत दिव्य गुणों से युक्त जलभाव को प्राप्त हो जाता है। जो प्रजा के लिये सुखदायक होते हैं॥

    विशेष

    वामदेवः। इन्द्रः=सूर्यः॥ विराट् त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    विषय

    जीवन का अलङ्करण

    पदार्थ

    १. अपने जीवन में काम, क्रोध, लोभादि वासनाओं का उद्बर्हण [ eradication ] करनेवाला व्यक्ति ‘बर्हिः’ कहलाता है। यह ( बर्हिः ) = अपने जीवन को निर्व्यसन करनेवाला वीर पुरुष ( हविषा ) = हवि के द्वारा—दानपूर्वक अदन के द्वारा [ हु = दान, अदन ] अर्थात् त्याग के द्वारा और ( घृतेन ) = मलों के क्षरण व ज्ञान-दीप्ति से ( सं अंक्ताम् ) = अपने को सम्यक्तया अलंकृत करे। जीवन के सच्चे आभूषण ‘त्याग, निर्मलता व ज्ञान-दीप्ति’ ही हैं। 

    २. ( आदित्यैः, वसुभिः, मरुद्भिः सं अंक्ताम् ) = आदित्यों, वसुओं व मरुतों के साथ सम्पर्क में आकर यह अपने जीवन को सुशोभित करे। सङ्ग का प्रभाव सर्वमान्य है। जैसों का साथ होता है, वैसा ही मनुष्य बन जाता है। ज्ञान का निरन्तर आदान करनेवाले आदित्यों का सम्पर्क हमें ज्ञान की रुचिवाला बनाएगा। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करनेवाले और जीवन में उत्तम निवासवाले वसुओं का सम्पर्क हमें स्वास्थ्य का ध्यान करनेवाला बनाएगा। ‘मरुतः प्राणाः’ = प्राणों की साधना करनेवाले अथवा ‘मितराविणः’ कम बोलनेवाले मरुतों का सम्पर्क हमें भी प्राणसाधक व मितभाषी बनाएगा। 

    ३. ( इन्द्रः ) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुष इस इन्द्रियजय के द्वारा ( विश्वदेवेभिः ) = सब दिव्य गुणों से ( सं अंक्ताम् ) = अपने जीवन को सुशोभित करे। ‘जितेन्द्रियता’ साधन है और ‘दिव्य गुण-लाभ’ उसका साध्य। 

    ४. इस प्रकार पुरुष ( दिव्यं नभः ) = स्वर्गलोक के आधारभूत आकाश को ( गच्छतु ) = प्राप्त हो। दिवो नाकस्य पृष्ठात् इस मन्त्रांश में द्युलोक स्वर्ग का पृष्ठ है। जब मनुष्य सब दिव्य गुणों से अलंकृत होता है—सब देवों का निवास-स्थान बनता है तब उसका अगला जन्म इस मर्त्यलोक में न होकर स्वर्गलोक में होता है। बस, शर्त यह है कि ( यत् ) = यदि ( स्वाहा ) = [ स्व+हा ] उसके जीवन में स्वार्थ-त्याग हो। ‘स्व’ का—स्वार्थ का छोड़ना दिव्यता प्राप्ति का प्रमुख कारण है। देव का मौलिक गुण ही ‘देवो दानात्’ दान करना, देना, स्वार्थ को छोड़ना है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम अपने जीवनों को दानपूर्वक अदन, निर्मलता, ज्ञान-दीप्ति, सत्सङ्ग-रुचि व दिव्य गुणों से अलंकृत करके अपने को स्वर्ग-प्राप्ति का अधिकारी बनाएँ।

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    विषय

    आधिभौतिक यज्ञ और राष्ट्र का वर्णन।

    भावार्थ

     ( बर्हिः ) यह महान् अन्तरिक्ष ( घृतेन ) घृत के साथ और ( हविषा ) हवि, होम करने योग्य चरु के साथ (सम् अक्ताम्) संयोग करे । ( आदित्यैः ) आदित्य की किरणों से ( वसुभिः ) अग्नि, वायु आदि आठ जीवन संचारक तत्वों से और ( मरुद्भिः ) वायुओं, प्राणों से भी ( सम् अक्ताम् ) भली प्रकार युक्त हो । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् आत्मा और परमेश्वर ( विश्वदेवेभिः ) समस्त इन्द्रियों और समस्त दिव्य पदार्थों से ( सम् अक्ताम् ) संयुक्त हो । ( यत् ) जब २ ( स्वाहा ) उत्तम आहुति हो तब २ ( दिव्यं नभः ) दिव्य जल ( गच्छतु ) बहे। 
    राष्ट्रपक्ष में -- ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( बर्हि: ) बढ़ने वाले राष्ट्र को ( घृतेन ) तेजोमय, प्रदीप्त, दोषरहित अन्न से संयुक्त करे ! उसको आदित्य, वसु मरुत्, अर्थात् वैश्यों, वसु=बसने हारे जीवों और मारणकर्मा तीव्र योद्धाओं से सुसज्जित करे। इस राष्ट्र को (यत्) जब ( विश्वदेवेभिः ) सब विद्वान् अधिकारियों से युक्त करे तब ( दिव्यं नभः गच्छतु ) दिव्य परस्पर संगठन, संयमन या व्यवस्था को राष्ट्र प्राप्त हो । ( सु आहा ) वह राष्ट्र उत्तम कहे जाने योग्य है । शत० १ । ९ । २ । २३ ॥ 
     

    टिप्पणी

     २२ – वामदेव ऋषिः ।द०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः ।
    लिंगोक्ता । इन्द्रो वा देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी आहुती शुद्ध करून यज्ञाग्नीत टाकली जाते ती अंतरिक्षात वायू, जल व सूर्यकिरणांशी संयुक्त होते व अंतरिक्षातील इकडे तिकडे पसरलेल्या सर्व पदार्थांमध्ये दिव्यत्व निर्माण करते. त्यामुळे सर्व लोक सुखी होतात. यासाठी माणसांनी उत्तम पदार्थ व साधनांनी वरील तीन प्रकारच्या यज्ञाचे सदैव अनुष्ठान करावे.

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    विषय

    यज्ञाद्वारे उर्ध्वदिशेस पाठविलेले पदार्थ अंतरिक्षात कोणासह राहतात, त्याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे. -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यत्) जेव्हां तुम्ही हवन करण्यास योग्य अशा द्रव्यांना (हविषा) होम करण्यास योग्य अशा (घृतेन) घृत आदी सुगंधित पदार्थांशी मिश्रित करून यज्ञ कराल, तेव्हां तो यज्ञ (आदित्यै: बारा महिने (वसुभि:) अग्नी आदी आठ निवासाचे स्थान आणि (मरूद्भि:) प्रजाजन यांच्याशी संयुक्त होऊन (संमक्ताम्) चांगल्या प्रकारे सुखाची उत्पत्ती व विकास करील. (इन्द्र:) सूर्यलोक यज्ञात आहुत्या (सवाहा) सुगंधित पदार्थांची युक्त अशा हवीला (संगच्छतु) वर अंतरिक्षात पाठवितो. पुन्हा सुर्य त्या (सम्) चांगल्या प्रकारे (विश्‍वेदेवेभि:) आपल्या किरणांनी मिश्रित करून (दिव्यम्) त्याच्या प्रकाशात एकत्रित झालेल्या (नभ:) जनाला (सुमंक्ताम्) चांगल्या हेतूसाठी सर्वांच्या सुखासाठी देतो. ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ- यज्ञासाठी चांगल्या पद्धतीने शुद्ध व तयार केलेले जे हवी अग्नीत टाकले जाते, ते अंतरिक्षामध्ये वायू, जल आणि सूर्याच्या किरणांशी मिळून इकडे तिकडे प्रसार पावते आणि आकाशस्य सर्व पदार्थांना दिव्य गुणांनी युक्त करून प्रजेला उत्तम प्रकारे सुखी करते. यामुळे मनुष्यांनी उत्तम हव्या-सामग्री आणि उत्तमोक्त साधनांद्वारे पूर्वोक्त तीन प्रकारच्या यज्ञाचे नित्य अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥22॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May the mighty space unite with oblation and butter. May it unite with the twelve months of the year, and eight life-giving agencies and vital breaths, May the sun be harnessed with all its rays. May pure water rain whenever duly consecrated oblations are offered.

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    Meaning

    Let the yajna-vedi be covered with havan materials seasoned with ghee and offered by the best of devotees and let the fragrance, carried by fire, wind and currents of energy, rise to the heights of the sky with Adityas, Vasus and Maruts and, there in the regions of light, the sun would mix the fragrance with its rays and convert it into vital vapour to shower on earth as water.

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    Translation

    May this place of sacrifice be filled with sacred food and melted butter. May the resplendent Lord, along with the suns, the worlds, the winds and all the bounties of Nature unite. May our dedicated oblations rise up to the blazing Sky. (1)

    Notes

    Sam anktam, may be filled. Adityah, with the suns. Vasubhih, with the worlds. Marudbhih, with the winds. Visvedevebhih, with all the bounties of Nature.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অগ্নৌ হুতং দ্রব্যমন্তরিক্ষস্থং ভূত্বা কেন চরতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    অগ্নিতে হুত দ্রব্য অন্তরিক্ষে স্থিত হইয়া কাহার সহিত থাকে সেই সম্পর্কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে আলোকপাত করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (য়ৎ) যখন হবন করিবার যোগ্য দ্রব্যকে (হবিষা) হোম করিবার যোগ্য (ঘৃতেন) ঘি ইত্যাদি সুগন্ধিযুক্ত পদার্থ সহিত সংযুক্ত করিয়া হবন করিবে তখন উহা (আদিত্যৈঃ) দ্বাদশ মাস (বসুভিঃ) অগ্নি ইত্যাদি অষ্ট নিবাসের স্থান এবং (মরুদ্ভিঃ) প্রজাগণ সহ মিলিত হইয়া সুখকে (সমংক্তাম্) সম্যক্ প্রকার প্রকাশ করিবে । (ইন্দ্রঃ) সূর্য্যলোক যাহা যজ্ঞে আহুতি প্রদত্ত (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা সুগন্ধাদি পদার্থযুক্ত হবি (সংগচ্ছতু) পৌঁছাইয়া দেয় তাহা দ্বারা (সম্) ভাল প্রকার মিশ্রিত হওয়া (বিশ্বদেবেভিঃ) স্বীয় কিরণ দ্বারা (দিব্যম্) তাহার আলোকে সংগৃহীত (নভঃ) জলকে (সমংক্তাম্) ভাল মত প্রকাশ করে ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে হবি ভাল প্রকার শুদ্ধ কৃত যজ্ঞের নিমিত্ত অগ্নিতে ত্যাগ করা হয় তাহা অন্তরিক্ষে বায়ু, জল এবং সূর্য্যের কিরণ সহ মিলিত হইয়া ইতস্ততঃ ছড়াইয়া আকাশস্থিত সকল পদার্থকে দিব্য করিয়া সম্যক্ প্রকার প্রজাকে সুখী করে । ইহার ফলে মনুষ্যদিগকে উত্তম সামগ্রী এবং উত্তমোত্তম সাধনগুলির দ্বারা উক্ত তিন প্রকার যজ্ঞের নিত্য অনুষ্ঠান করা উচিত ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সং ব॒র্হির॑ঙ্ক্তাᳬं হ॒বিষা॑ ঘৃ॒তেন॒ সমা॑দি॒ত্যৈর্বসু॑ভিঃ॒ সং ম॒রুদ্ভিঃ ।
    সমিন্দ্রো॑ বি॒শ্বদে॑বেভিরঙ্ক্তাং দি॒ব্যং নভো॑ গচ্ছতু॒ য়ৎ স্বাহা॑ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সং বর্হিরিত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । বিরাট্ত্রি ষ্টুপ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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