यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 31
अत्र॑ पितरो मादयध्वं यथाभा॒गमावृ॑षायध्वम्। अमी॑मदन्त पि॒तरो॑ यथाभा॒गमावृ॑षायिषत॥३१॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑। पि॒त॒रः॒। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। वृ॒षा॒य॒ध्व॒म्। वृ॒षा॒य॒ध्व॒मिति॑ वृषऽयध्वम्। अमी॑मदन्त। पि॒तरः॑। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। अ॒वृ॒षा॒यि॒ष॒त॒ ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्र पितरो मादयध्वँयथाभागमा वृषायध्वम् । अमीमदन्त पितरो यथाभागमा वृषायिषत ॥
स्वर रहित पद पाठ
अत्र। पितरः। मादयध्वम्। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। वृषायध्वम्। वृषायध्वमिति वृषऽयध्वम्। अमीमदन्त। पितरः। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। अवृषायिषत॥३१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्यैर्धार्मिकाः ज्ञानिनो विद्वांसः कथं सत्कर्तव्या इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे पितरो! यूयमत्र यथाभागमावृषायध्वम्। मादयध्वमस्मान् यथाभागमावृषायिषतामीमदन्तास्मान् हर्षयत॥३१॥
पदार्थः
(अत्र) अस्माकं सत्कारसंयुक्ते व्यवहारे स्थाने वा (पितरः) पान्ति पालयन्ति सद्विद्याशिक्षाभ्यां ये ते तत्संबुद्धौ (मादयध्वम्) हर्षयध्वम् (यथाभागम्) भागमनतिक्रम्य कुर्वन्तीति यथाभागम् (आ) समन्तात् (वृषायध्वम्) आनन्दसेक्तारो वृषा इवाचरत। कर्त्तुः क्यङ् सलोपश्च (अष्टा॰३.१.११) अनेन क्यङ् प्रत्ययः। (अमीमदन्त) आनन्दयतास्मान् मोदयत, विद्यां ज्ञापयत वा (पितरः) विद्वांसो विद्यादानेन रक्षकाः (यथाभागम्) भागं भागं प्रतीति यथाभागम्। अत्र वीप्सार्थे प्रतिः। (आ) आभिमुख्यतया (अवृषायिषत) विद्याधर्मशिक्षया हर्षकारका भवत। लोडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः (शत॰२.४.२.१९-२३) व्याख्यातः॥३१॥
भावार्थः
ईश्वर आज्ञापयति-मातापित्रादीन् विदुषोऽध्यापकान् धार्मिकान् पितॄन् समीपस्थानागच्छतश्च दृष्ट्वैवं वाच्यं सेवनं च कार्य्यम्-हे अस्मत्पितरो! यूयं स्वागतमागच्छतास्मद्विषये यथायोग्यान् भोगानासनादींश्चेमानस्मद्दत्तान् स्वीकृत्य सुखयत यद्यदाऽऽवश्यकं युष्माकमिष्टं वस्त्वस्माभिरानेतुं योग्यं तदाज्ञापयत। एवमत्राऽस्माभिः सत्कृताः सन्तो भवन्तः प्रश्नोत्तरविधानेनाऽस्मान् स्थूलसूक्ष्मविद्याधर्मोपदेशेन यथावद् वर्द्धयन्तु। युष्मद्वर्द्धिता वयं नित्यं सत्क्रियाः कृत्वाऽन्यैः कारयित्वा च सर्वेषां प्राणिनां सुखविद्योन्नतीः नित्यं कुर्य्यामेति॥३१॥
विषयः
मनुष्यर्धामिका ज्ञानिनो विद्वांसः कथं सत्कर्त्तव्या इत्युपदिश्यते ॥
पदार्थः
(अत्र) अस्माकं सत्कारसंयुक्ते व्यवहारे स्थाने वा (पितरः) पान्ति पालयन्ति सद्विद्याशिक्षाभ्यां ये ते तत्संबुद्धौ (मादयध्वम्) हर्षयध्वम् (यथाभागम्) भागमनतिक्रम्य कुर्वन्तीति यथाभागम् (आ) समन्तात् (वृषायध्वम्) आनन्दसेक्तारो वृषा इवाचरत । कर्तुः क्यङ् सलोपश्च ॥ अ० ३ । १ । ११ ।अनेन क्यङ् प्रत्ययः (अमीमदन्त) आनन्दयतास्यमान् मोदयत विद्यां ज्ञापयत वा (पितरः) विद्वांसो विद्यादानेन रक्षका: (यथाभागम् ) भागं भागं प्रतीति यथाभागम् । अत्र वीप्सार्थे प्रतिः । (आ) आभि- मुख्यतया (अवृषायिषत) विद्याधर्मशिक्षया हर्षकारका भवत । लोडर्थे लुङ् ॥ अयं मंत्रः श० २ | ४ | २ | २०-२२ व्याख्यातः ॥ ३१ ॥
सपदार्थान्वयः- हे पितरः! पान्ति=पालयन्ति सद्विद्याशिक्षाभ्यां ये ते, तत्सम्बुद्धौ, यूयमत्र अस्माकं सत्कार-संयुक्ते व्यवहारे, स्थाने वा यथाभागं भागमनतिक्रम्य कुर्वन्तीति यथाभागम् अ+वृषायध्वं समन्तादानन्दसेक्तारो वृषा इवाऽऽचरत ।
[पितर:!] विद्वांसो विद्यादानेन रक्षकाः ! मादयध्वं हर्षयध्वम्, अस्मान् यथाभागं भाग भागं प्रतीति यथाभागम् आ+अवृधायिषत आभिमुख्यतया विद्या-धर्म-शिक्षया हर्षकारका भवत, अमीमदन्त अस्मान् हर्षयत आनन्दयतास्मान् मोदयत विद्यां ज्ञापयत वा ॥ २ । ३१ ॥
भावार्थः
ईश्वरं आज्ञापयति-मातापित्रादीन् विदुषोऽध्यापकान्, धार्मिकान् पितॄन् समीपस्थानागच्छतश्च दृष्ट्वैवं वाच्यं, सेवनं च कार्यम्—
[ हे पितरः! यूयमत्र यथाभागमावृषायध्वम्]
हे अस्मत्पितरो ! यूयं स्वागतमागच्छतास्मद्विषये, यथायोग्यान् भोगानासनादींश्चेमानस्मद्दत्तान् स्वीकृत्य सुखयत, यद्यदावश्यकं युष्माकमिष्टं वस्त्वस्माभिरानेतुं योग्यं तदाज्ञापयत । !
[पितरः! मादयध्वमस्मान् यथाभागमावृषायिषत, अमीमदन्त=अस्मान् हर्षयत]
एवमत्राऽस्माभिः साकृताः सन्तो भवन्तः प्रश्नोत्तरविधानेनाऽस्मान् स्थूलसूक्ष्मविद्याधर्मोपदेशेन यथावद् वर्द्धयन्तु। युष्मद्वर्द्धिता वयं नित्यं सत्क्रियाः कृत्वाऽन्यैः कारयित्वा च सर्वेषां प्राणिनां सुखविद्योन्नतीः नित्यं कुर्यामेति ॥ २ ॥ ३१ ॥
भावार्थ पदार्थः
पितरः=मातापित्रादयः, विद्वांसोऽध्यापकाः । यथाभागम्=यथायोग्यंभोगम् ।
विशेषः
वामदेवः । पितरः=विद्वांसः । मध्यमः ॥वामदेवः । पितरः=विद्वांसः । मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य लोगों को धर्मात्मा, ज्ञानी, विद्वान् पुरुषों का कैसा सत्कार करना योग्य है, सो अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (पितरः) उत्तम विद्या वा उत्तम शिक्षाओं और विद्यादान से पालन करने वाले विद्वान् लोगो! (अत्र) हमारे सत्कारयुक्त व्यवहार अथवा स्थान में (यथाभागम्) यथायोग्य पदार्थों के विभाग को (आवृषायध्वम्) अच्छी प्रकार जैसे कि आनन्द देने वाले बैल अपनी घास को चरते हैं, वैसे पाओ और (मादयध्वम्) आनन्दित भी हो, तथा आप हम लोगों के जिस प्रकार (यथाभागम्) यथायोग्य अपनी-अपनी बुद्धि के अनुकूल गुण विभाग को प्राप्त हों, वैसे (आवृषायिषत) विद्या और धर्म की शिक्षा करने वाले हो और (अमीमदन्त) सब को आनन्द दो॥३१॥
भावार्थ
ईश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्य लोग माता और पिता आदि धार्मिक सज्जन विद्वानों को समीप आये हुए देखकर उनकी सेवा करें। प्रार्थनापूर्वक वाक्य कहें कि हे पितरो! आप लोगों का आना हमारे उत्तम भाग्य से होता है, सो आओ और जो अपने व्यवहार में यथायोग्य और भोग आसन आदि पदार्थों को हम देते हैं, उनको स्वीकार करके सुख को प्राप्त हो तथा जो-जो आप के प्रिय पदार्थ हमारे लाने योग्य हों, उस-उस की आज्ञा दीजिये, क्योंकि सत्कार को प्राप्त होकर आप प्रश्नोत्तर विधान से हम लोगों को स्थूल और सूक्ष्म विद्या वा धर्म के उपदेश से यथावत् वृद्धियुक्त कीजिये। आप से वृद्धि को प्राप्त हुए हम लोग अच्छे-अच्छे कामों को करके तथा औरों से अच्छे काम कराके सब प्राणियों का सुख और विद्या की उन्नति नित्य करें॥३१॥
विषय
मनुष्य धर्मात्मा, ज्ञानी, विद्वान् पुरुषों का कैसे सत्कार करें, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे (पितरः!) उत्तम विद्या और शिक्षा के द्वारा पालन करने वाले पितर जनो! तुम सब (अत्र) हमारे इस सत्कार-युक्त व्यवहार अथवा स्थान में (यथाभागम्) यथायोग्य अपने भाग का अतिक्रमण न करके (आ-वृषायघ्वम्) सब ओर आनन्द से सिंचन करने वाले साँड के समान प्रसन्न रहो।
हे (पितरः!) विद्या के दान द्वारा रक्षा करने वाले विद्वानो! (मादयध्वम्) हमें भी प्रसन्न रक्खो। तथा (यथाभागम्) प्रत्येक भाग में (आ-अवृषायिषत) विद्या और धर्म की शिक्षा से सर्वथा सम्मुख हर्ष उत्पन्न करने वाले वाले बनो। और—
(अमीमदन्त्) हमें आनन्दित एवं मुदित करो और विद्या सिखलाओ॥२।३१॥
भावार्थ
ईश्वर आज्ञा देता है कि माता, पिता आदि तथा विद्वान् अध्यापक, धार्मिक पितर जनों को निकट एवं आते हुए देखकर इस प्रकार कहें और सेवा करें—
हे हमारे पितर-जनो! आपका स्वागत है, आप हमारे देश में आइये, हमारे द्वारा प्रदान किये इन यथायोग्य भोग्य-पदार्थों तथा आसन आदि को स्वीकार करके हमें सुखी करो, जो-जो आपकी आवश्यक तथा प्रिय वस्तु हो उसे लाने के लिये आज्ञा दीजिये।
इस प्रकार यहां हम से सत्कृत हुये आप लोग प्रश्न-उत्तर से हमें स्थूल और सूक्ष्म विद्या तथा धर्मोपदेश से उन्नत करो। आपके सदुपदेश से वृद्धि को प्राप्त हुये हम लोग सदा सत्कार करके तथा अन्यों से भी करवा के सब प्राणियों के सुख तथा विद्या की उन्नति नित्य करें॥२।३१॥
भाष्यसार
१. पितरों का लक्षण--उत्तम विद्या और शिक्षा के द्वारा पालन करने वाले माता-पिता, विद्यादान से रक्षा करने वाले विद्वान् अध्यापक लोगों को पितर कहते हैं।
२. पितरों का सत्कार--पितर लोगों को अपने घर तथा सत्कार के स्थान सभा आदि में निमन्त्रित करें और उनका स्वागत करें, यथायोग्य खाद्य-पदार्थ तथा आसन आदि से उनकी सेवा करें, जोउनकी प्रिय वस्तु होउसे लाने के लिये उनसे आज्ञा माँगें, आनन्द की वर्षा करने वाले पितर जनों से प्रश्न-उत्तर के द्वारा विद्या और धर्मोपदेश ग्रहण करके सदा हर्ष में रहें। पितर जनों के सत्कार से विद्या और सुख की उन्नति नित्य करते रहें॥
अन्यत्र व्याख्यात
अन्यत्र व्याख्यात- इस मन्त्र की व्याख्या महर्षि ने ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका (पितृयज्ञविषय) में इस प्रकार की हैः—
(अत्र पितरो मा॰)--हे पितर लोगो! आप यहां हमारे स्थान में आनन्द कीजिये (यथाभागमावृ॰) अपनी इच्छा के अनुकूल भोजन, वस्त्रादि भोग से आनन्दित हूजिये (अमीमदन्त पितरः॰) आप यहां विद्या के प्रचार से सबको आनन्दयुक्त कीजिये। (यथाभागमा॰) हम लोगों से यथायोग्य सत्कार को प्राप्त होकर अपनी प्रसन्नता के प्रकाश से हमको भी आनदिन्त कीजिये’’॥२।३१॥
विषय
मादयध्वं, आवृषायध्वम्
पदार्थ
जो युवक व युवति आसुर वृत्ति के नहीं होते वे अपने माता-पिता से यही प्रार्थना करते हैं कि ( पितरः ) = उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा हमारा रक्षण करनेवाले पितरो! ( अत्र ) = आप यहाँ ही—घर में ही ( मादयध्वम् ) = हर्षपूर्वक निवास करो। ( गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः ) = घर में रहते हुए भी पाँचों इन्द्रियों का निग्रहरूप तप किया जा सकता है, उसके लिए वनस्थ होने की क्या आवश्यकता ? घर की सब उलझनों को हमारे कन्धों पर डालकर आप यहाँ अपने जीवन को आनन्दयुक्त कीजिए। प्रभु-भजन की मस्ती का आनन्द आप यहाँ भी ले-सकते हैं। यहाँ रहते हुए आप ( यथाभागम् ) = भाग के अनुसार, अर्थात् समय-समय पर सेवन के योग्य ( आवृषायध्वम् ) = विद्या और धर्म की शिक्षा की वर्षा करनेवाले होओ। आज से पहले भी ( पितरः ) = पितर लोग ( अमीमदन्त ) = घर पर ही आनन्द से रहनेवाले हुए हैं और उन्होंने ( यथाभागम् ) = यथासमय ( आवृषायिषत ) = स्थूल व सूक्ष्म विद्या तथा धर्म के उपदेश की वर्षा की है—धर्मज्ञान से हम सन्तानों को सिक्त किया है। हम किसी अभूतपूर्व बात के लिए आपसे प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। आपके ज्ञानोपदेश से हमारा मार्ग भी सदा प्रकाशमय बना रहेगा।
भावार्थ
भावार्थ — ‘हे मान्या माता व पिताजी! आप घर पर ही सानन्द रहिए व समय-समय पर हमें सुसम्मति देते रहिए’ यह है पितृभक्त सन्तानों की प्रार्थना। ऐसी सन्तान ही सच्चा पितृयज्ञ करनेवाली होती है।
विषय
वृद्धजनों को प्रसन्न रखना।
भावार्थ
( अत्र ) यहां, इस स्थान में गृह में, देश में, लोक में ( पितरः ) पालन करने हारे गुरु, विद्वान् पुरुष, माता पिता एवं वृद्धजन और देश के पालक अधिकारीगण ( मादयध्वम् ) आनन्द, प्रसन्न रहे और स्वयं औरों को भी वे सुप्रसन्न करें। ( यथाभागम् ) अपने उचित भाग के अनुरूप अर्थात् अपने अधिकार,मान, पद एवं शक्ति, योग्यता के अनुकूल ( आवृषायध्वम् ) सब प्रकार से हृष्ट पुष्ट हों और औरों को भी आनन्दित करें। ( पितरः अमीमदन्त ) पालक वृद्धजन खूब हर्षित प्रसन्न हों और ( यथाभागम् आ वृषायिषत ) अपनी शक्ति योग्यता एवं पद के अनुरूप हृष्ट पुष्ट भी हो॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
पितरो देवताः । बृहती । मध्यमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वराज्ञा अशी आहे की, माणसांनी माता, पिता व धार्मिक सज्जन विद्वानांची सेवा करावी व त्यांना विनंती करावी, हे पितरांनो ! आमच्या उत्तम दैवामुळे तुमचे आगमन होणे म्हणजे आमचे अहोभाग्य होय. त्यासाठी आसन व भोग्य पदार्थ वगैरे देऊन आम्ही तुमचा योग्य सत्कार करतो. त्यामुळे तुम्हाला सुख मिळेल. तुम्हाला जे पदार्थ आवडतात ते देण्याचा प्रयत्न करू तशी आज्ञा करा, कारण तुमचा सत्कार झाल्यावर तुम्ही प्रश्नोत्तररूपाने स्थूल व सूक्ष्म विद्या व धर्म यांची वाढ व्हावी, असा उपदेश करा. अशा प्रकारे उन्नती झाल्यानंतर आम्ही चांगले कार्य करू व इतरांनाही चांगले कार्य करण्यास उद्युक्त करू. याप्रमाणे सर्वांना सुखी करून सदैव विद्येची वृद्धी करू.
विषय
मनुष्यांनी धर्मात्मा, ज्ञानी आणि विद्वान व्यक्तींचा सत्कार करणे का व कसे उचित आहे, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (पितर:) स्वत: उत्तम विद्यावान असलेल्या आणि इतरांना उत्तम ज्ञान व उपकारक विद्या देऊन पालन करणार्या विद्वज्जनहो (अत्र) आमच्या या सत्कार-समारोहात किंवा सत्कार-स्थानात (यथाभागम्) सत्कारासाठी विविध पदार्थांचा (आवृषायवाम्) तुम्ही स्वीकार करा. ज्या प्रमाणे बैल अत्यंत आनंदीत होऊन गवत-चारा खातात, तद्वत तुम्ही आमच्या सत्कार-सन्मानाचा सानंद स्वीकार करा. आणि (मादयध्वम्) त्यास गोड मानून घ्या. आम्ही आपापल्या ज्या ज्या बुद्धी व इच्छेप्रमाणे तुमच्याकडे येऊ, तसे तुम्ही (यथाभागम्) यथोचित गुण व ज्ञान देणारे व्हा. (आवृषादित) विद्या आणि धर्माचे शिक्षण देणारे व्हा व (अमीमदन्त) सर्व ज्ञानार्थी सुखार्थींना आनंदीत करा.
भावार्थ
भावार्थ -ईश्वर आज्ञा करीत आहे की माणसांनी आपल्या आई-वडिलांची सेवा करावी व अन्यही आगत धार्मिक सज्जन विद्वानांनी अवश्य सेवा करावी. अशा वेळी प्रार्थना करून या प्रकारें त्यांना विनंती करावी ‘हे पितरगण, आपले शुभागमन हे आमचे परम भाग्य आहे. या आणि आम्ही आमच्या शक्तिसामर्थ्याप्रमाणे जे भोग्य पदार्थ, आसन आदी आपणांस देत आहोत, त्याचा स्वीकार करा आणि ते गोड मानून घ्या. तसेच जे पदार्थ आपणांस प्रिय आहेत, ते आणण्यासाठी आज्ञा करा. कारण की सत्कारामुळे आपण प्रसन्न होऊन आमच्या प्रश्नांना उत्तरें देऊन आमच्या ज्ञानात वृद्धी कराल. तसेच आम्हांला स्थूल आणि सूक्ष्म विद्येविषयी सांगून धर्माचा उपदेश करून आमच्या जीवनात यथोचित वृद्धी कराल. आपणांकडून प्रेरणा प्राप्त करून आम्ही श्रेष्ठ उत्तम सत्कर्म करू आणि इतरांकडूनही सत्कर्म करून घेऊ. अशा प्रकारे सर्वांनी सर्व जीवांच्या सुखात आणि विद्या-ज्ञानाची नित्य उन्नती करावी.॥31॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In this world, let the wise and the learned enjoy, let them be strong, healthy and pleased, according to their capacity. Let them be happy, hale and hearty according to their resources.
Meaning
Trustees and guardians of society, men of knowledge and wisdom, justice and merit, take your share as you deserve and, in your own right and proper place here, rejoice and celebrate the victory of yajna. Make all others happy and, as they deserve on merit, let them too rejoice and celebrate.
Translation
Let the elders make merry here and enjoy to the full what has been allotted to them. (1) The elders have made merry here and enjoyed to the full what had been to their lot. (2)
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈর্ধার্মিকাঃ জ্ঞানিনো বিদ্বাংসঃ কথং সৎকর্তব্যা ইত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্য দিগের ধর্মাত্মা, জ্ঞানী, বিদ্বান্ পুরুষদের কীরকম আদর-সৎকার করা উচিত সেই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (পিতরঃ) উত্তম বিদ্যা বা উত্তম শিক্ষা ও বিদ্যাদানপূর্বক পালনকারী বিদ্বান্গণ! (অত্র) আমাদের সৎকারযুক্ত ব্যবহার অথবা স্থানে (য়থাভাগম্) যথাযোগ্য পদার্থের বিভাগকে (আবৃষায়ধ্বম্) ভাল প্রকার যেমন আনন্দদাতা বৃষভ তৃণমধ্যে বিচরণ করে সেইরূপ পাইবেন এবং (মাদয়ধ্বম্) আনন্দিতও হইবেন তথা আপনি আমাদের যে প্রকার (য়থাভাগম্) যথাযোগ্য নিজ নিজ বুদ্ধির অনুকূল গুণ-বিভাগ প্রাপ্ত হন সেইরূপ (আবৃষায়িষত) বিদ্যা ও ধর্মের শিক্ষা দাতা হউন এবং (অমীয়দন্ত) সকলকে আনন্দদান করুন ॥ ৩১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর আজ্ঞা প্রদান করিতেছেন যে, মনুষ্যগণ মাতা-পিতা ইত্যাদি ধার্মিক সজ্জন বিদ্বান্দিগকে নিকটে আসিতে দেখিয়া তাহাদের সেবা করিবে । প্রার্থনাপূর্বক বাক্য বলিবে – হে পিতরগণ! আপনাদের আসা আমাদের উত্তম ভাগ্যের ফলে হইয়াছে সুতরাং আসুন এবং যাহা নিজের ব্যবহারে যথাযোগ্য এবং ভোগ-আসনাদি পদার্থসকলকে আমরা প্রদান করি তাহা স্বীকার করিয়া সুখ প্রাপ্ত হউন এবং যাহা যাহা আপনার প্রিয় পদার্থ আমাদের আনিবার যোগ্য তাহা তাহার আজ্ঞা প্রদান করুন কেননা সৎকার প্রাপ্ত হইয়া আপনি প্রশ্নোত্তর বিধানপূর্বক আমাদিগকে স্থূল ও সূক্ষ্ম বিদ্যা বা ধর্মের উপদেশ দ্বারা যথাবৎ বুদ্ধিযুক্ত করুন । আপনার হইতে বৃদ্ধি প্রাপ্ত আমরা ভাল ভাল কর্ম করিয়া এবং অপরের দ্বারা ভাল ভাল কর্ম করাইয়া সর্ব প্রাণিদিগের সুখ ও বিদ্যার উন্নতি সর্বদা করিতে থাকিব ॥ ৩১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অত্র॑ পিতরো মাদয়ধ্বং য়থাভা॒গমা বৃ॑ষায়ধ্বম্ ।
অমী॑মদন্ত পি॒তরো॑ য়থাভা॒গমাऽऽऽবৃ॑ষায়িষত ॥ ৩১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অত্র পিতর ইত্যস্যর্ষিঃ স এব । পিতরো দেবতাঃ । বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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