Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः
    0

    दैव्या॑ होताराऽ उ॒र्ध्वम॑ध्व॒रं नो॒ऽग्नेर्जिह्वाम॒भि गृ॑णीतम्। कृ॒णु॒तं नः॒ स्विष्टिम्॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑। हो॒ता॒रा॒। ऊ॒र्ध्वम्। अ॒ध्व॒रम्। नः॒। अ॒ग्नेः। जि॒ह्वाम्। अ॒भि। गृ॒णी॒त॒म् कृ॒णु॒तम्। नः॒ स्वि᳖ष्टि॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टिम् ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होताराऽऊर्ध्वमध्वरन्नो ग्नेर्जुह्वामभि गृणीतम् । कृणुतम्नः स्विष्टम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। ऊर्ध्वम्। अध्वरम्। नः। अग्नेः। जिह्वाम्। अभि। गृणीतम् कृणुतम्। नः स्विष्टिमिति सुऽइष्टिम्॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. हे प्राणापानो! (दैव्या होतारा) = प्राणापान (न:) = हमारे (अध्वरम्) = हिंसा न करनेवाले यज्ञ को (ऊर्ध्वभ् कृणुतम्) = उत्कृष्ट करें, अर्थात् हमारे जीवन में यज्ञ को प्रधानता प्राप्त हो । (अग्ने:) = मुझ प्रगति के पथ पर प्रस्थान की कामनावाले की (जिह्वाम्) = जिह्वा को (अभिगृणीतम्) = स्तुति करनेवाला बनाओ। मेरी जिह्वा दिन-रात [अभि-दोनों ओर, जगारित में व स्वपन में भी] प्रभु का स्तवन करनेवाली हो। ३. हे प्राणपानो! (नः) = हमारी (स्विष्टिम्) = उत्तम इष्टि को इच्छा व गति को (कृणुतम्) = करो। हमारे मनों में सदा शुभ इच्छाएँ ही उत्पन्न हों, हमारे संकल्प शिव ही हों। ४. हमारे प्राणापान "दैव्य होता" बनें - देव को प्राप्त करानेवाले हों और हममें त्याग की वृत्ति को पनपानेवाले हों, ये सदा त्यागपूर्वक ही अदन करें। वस्तुतः होतृत्व ही इन्हें दैव्य बनाता है। जो जितना त्याग की वृत्तिवाला बनता है उतना ही प्रभु के समीप पहुँचनेवाला होता है। प्रभु की प्राप्ति के लिए भौतिक वस्तुओं का त्याग आवश्यक है। शरीर में अन्य इन्द्रियों की तुलना में प्राणापान का होतृत्व उत्कृष्ट है, अतः ये प्राणापान दैव्य देव को प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम में यज्ञियवृत्ति हो, हमारी जिह्वा प्रभु का नामोच्चारण करे और हमारी इच्छाएँ व क्रियायें उत्तम हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top