यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 6
अति॒ निहो॒ऽ अति॒ स्रिधोऽत्यचि॑त्ति॒मत्यरा॑तिमग्ने।विश्वा॒ ह्यग्ने दुरि॒ता सह॒स्वाथा॒ऽस्मभ्य॑ꣳ स॒हवीरा र॒यिं दाः॑॥६॥
स्वर सहित पद पाठअति॑। निहः॑। अति॑। स्रिधः॑। अति॑। अचि॑त्तिम्। अति॑। अरा॑तिम्। अ॒ग्ने॒ ॥ विश्वा॑। हि। अ॒ग्ने॒। दु॒रि॒तेति॑ दुःऽइ॒ता। सह॑स्व। अथ॑। अ॒स्मभ्य॑म्। स॒हवी॑रा॒मिति॑ स॒हऽवी॑राम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अति निहोऽअति स्रिधोत्यचित्तिमत्यरातिमग्ने । विश्वा ह्यग्ने दुरिता सहस्वाथास्मभ्यँ सहवीराँ रयिन्दाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अति। निहः। अति। स्रिधः। अति। अचित्तिम्। अति। अरातिम्। अग्ने॥ विश्वा। हि। अग्ने। दुरितेति दुऽःइता। सहस्व। अथ। अस्मभ्यम्। सहवीरामिति सहऽवीराम्। रयिम्। दाः॥६॥
विषय - दुष्ट-संग से दूर
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = जीवन में आगे बढ़ने के स्वभाववाले जीव ! (निह:) = [निहन्तून्] हिंसकवृत्तिवालों को (अति) = [अतिक्रम्य] अतिक्रमण करके, लाँघकर, अर्थात् इनके संग से सदा बचकर, २. (स्त्रिधः) = [स्त्रिध कुत्सावाक्] कुत्सित आचरणवालों को, अर्थात् संयम की मर्यादा के तोड़नेवालों को (अति) = लाँघकर ३. (अचित्तिम् अति) = अन्यमनस्कतावालों के, अध्ययन व संज्ञान की प्रवृत्ति के अभाववालों को लाँघ के तथा ४. (अरातिम् अति) = न दान की वृत्तिवाले, कृपण व अयज्ञिय वृत्तिवाले पुरुष को लाँघकर हे (अग्ने) = प्रगतिशील! तू (विश्वा दुरिता) = सब पापों को (सहस्व) = अभिभूत कर अपने से दूर कर । वस्तुतः दुरितों से दूर होने के लिए दुष्ट मनोवृत्ति व दुष्टाचरणवालों से दूर रहना आवश्यक है । ५. यह 'अग्नि' प्रभु से प्रार्थना करता है कि (अथ) = अब, जबकि हमने हिंसकों, कुत्सिताचरणों, अज्ञानियों व कृपणों से दूर रहकर अपनी वृत्तियों को सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है तो आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सहवीराम्) = वीर पुत्रों से युक्त (रयिम्) = धन को (दाः) = दीजिए। वस्तुतः जब हमारा जीवन सदाचारसम्पन्न होता है तब हमें धन प्राप्त होता है और वह धन वीर सन्तानों से युक्त होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम दुष्टाचारणों को त्यागें, जिससे उत्तम धन और वीर सन्तानों से युक्त हों।
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