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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स॒प्तास्या॑सन् परि॒धय॒स्त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः।दे॒वा यद्य॒ज्ञं॑ त॑न्वा॒नाऽअब॑ध्न॒न् पुरु॑षं प॒शुम्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त। अ॒स्य॒। आ॒स॒न्। प॒रि॒धय॒। इति॑ परि॒ऽधयः॑। त्रिः। स॒प्त। स॒मिध॒ इति॑ स॒म्ऽइधः॑। कृ॒ताः ॥ दे॒वाः। यत्। य॒ज्ञम्। त॒न्वा॒नाः। अब॑ध्नन्। पुरु॑षम्। प॒शुम् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः । देवा यद्यज्ञन्तन्वानाऽअबध्नन्पुरुषम्पशुम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त। अस्य। आसन्। परिधय। इति परिऽधयः। त्रिः। सप्त। समिध इति सम्ऽइधः। कृताः॥ देवाः। यत्। यज्ञम्। तन्वानाः। अबध्नन्। पुरुषम्। पशुम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    १. (देवाः) = देवलोग (यत्) = जब (यज्ञम्) = प्रभु के साथ मेल को (तन्वानाः) = विस्तृत करते हुए (पुरुषम्) = पौरुषवाले (पशुम्) = इस काम-क्रोधरूप पशु को (अबध्नन्) = बाँधते हैं तब (अस्य) = इस यज्ञ का विस्तार व पशुबन्धन करनेवाले के (सप्त) = सात ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') कर्णादि ऋषि (परिधयः) = परिधिरूप, बड़ी मर्यादा में चलनेवाले (आसन्) = हो जाते हैं और (त्रिःसप्त) = शरीर की इक्कीस शक्तियाँ (समिध:) = अत्यन्त समृद्धि व दीप्तिवाली की (कृता:) = जाती हैं । २. प्रभुमेल करने योग्य हैं, अतः यज्ञ हैं। यज्ञ का अर्थ 'मेल' भी है। देव व समझदार लोग प्रभु से मेल करते हैं, नकि प्रकृति से माधुर्यवाली वस्तु जैसे मधुर कहलाती है उसी प्रकार पौरुषवाले इस काम को यहाँ पुरुष कहा गया है। उपनिषद् में 'कामः पशुः क्रोधः पशु' इन शब्दों में काम-क्रोध को पशु कहा गया है। प्रभु से मेल का ही यह परिणाम होता है कि इस पशु को हम बाँध पाते है, अपना कैदी बना लेते हैं। यह वशीभूत काम हमारे वेदाधिगम व वैदिक कर्मयोग का साधन बनता है। इस प्रकार पशु मनुष्य का कार्यवाहक बन जाता है । ३. काम-क्रोध को वशीभूत करनेवाले इस यज्ञमय पुरुष के दो कान, दो आँखु, दो नासिका छिद्र व मुखरूप सब इन्द्रियाँ परिधि बन जाती हैं। परिधि=मर्यादा, इसकी इन्द्रियाँ सदा मर्यादा में रहती हैं, उसका उल्लंघन नहीं करतीं। दूसरे शब्दों में इसके इन्द्रियरूप अश्व सन्मार्ग का ही आक्रमण करते हैं, मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं होते। ४. इन्द्रियों के सदा सन्मार्ग पर चलने का यह परिणाम होता है कि इसकी इक्कीस शक्तियाँ सदा दीप्त रहती हैं। इसकी शक्तियाँ चमक उठती हैं। इन्द्रियों का मर्यादा में रहना और शक्तियों के दीपन में कार्यकारण भाव तो है ही ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभुभक्ति व प्रभु से मेल के तीन परिणाम हैं १. काम-क्रोध का वशीकरण २. इन्द्रियों का मर्यादा में रहना और ३. शक्तियों का वर्धन व दीपन।

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