यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 22
अचि॑क्रद॒द् वृषा॒ हरि॑र्म॒हान् मि॒त्रो न द॑र्श॒तः।सꣳ सूर्य्ये॑ण दिद्युतदुद॒धिर्नि॒धिः॥२२॥
स्वर सहित पद पाठअचि॑क्रदत्। वृषा॑। हरिः॑। म॒हान्। मि॒त्रः। न। द॒र्श॒तः ॥ सम्। सूर्य्ये॑ण। दि॒द्यु॒त॒त्। उ॒द॒धिरित्यु॑द॒ऽधिः। नि॒धिरिति॑ नि॒ऽधिः ॥२२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सँ सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अचिक्रदत्। वृषा। हरिः। महान्। मित्रः। न। दर्शतः॥ सम्। सूर्य्येण। दिद्युतत्। उदधिरित्युदऽधिः। निधिरिति निऽधिः॥२२॥
विषय - लोक-संग्रह
पदार्थ -
गतमन्त्र में (घर्म) = रक्षा द्वारा अपना वर्धन करके औरों के हित में प्रवृत्त होने का उल्लेख है। यह औरों के हित में प्रवृत होनेवाला व्यक्ति १. (अचिक्रदत्) = शब्द करता है, औरों को ज्ञान का उपदेश देता है। महान् इस ज्ञान उपदेश के द्वारा २. (वृषाः) = यह औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है । ३. (हरिः) = उनके दुःखों का हरण करता है। ४. अपने इस महान् हितकार्य में यह विशाल हृदयवाला होता है। इसके हितकार्य में 'जाति, देश व धर्म' का बन्धन नहीं होता। यह सभी का हित करता है, सम्पूर्ण वसुधा को अपना कुटुम्ब समझता है । ५. यह (मित्रः न) = सूर्य के समान (दर्शतः) = दर्शनीय होता है। बड़ा तेजस्वी होता है ६. (सूर्येण सं विद्युतत्) = ज्ञान के सूर्य से निरन्तर चमकता है। ७. (उदधि:) = यह ज्ञान का समुद्र बन जाता है अथवा समुद्र के समान गम्भीर होता है तथा ८. दिव्य गुणों का (निधिः) = कोश बन जाता है।
भावार्थ - भावार्थ - घर्म की रक्षा से स्वयं बढ़कर औरों को बढ़ानेवाला 'दीर्घतमा' ज्ञान का उपदेश करता है और इस प्रकार सबके दुःखों को दूर करने के लिए यत्नशील होता है।
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