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यजुर्वेद अध्याय - 38

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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 22
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - परोष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    71

    अचि॑क्रद॒द् वृषा॒ हरि॑र्म॒हान् मि॒त्रो न द॑र्श॒तः।सꣳ सूर्य्ये॑ण दिद्युतदुद॒धिर्नि॒धिः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अचि॑क्रदत्। वृषा॑। हरिः॑। म॒हान्। मि॒त्रः। न। द॒र्श॒तः ॥ सम्। सूर्य्ये॑ण। दि॒द्यु॒त॒त्। उ॒द॒धिरित्यु॑द॒ऽधिः। नि॒धिरिति॑ नि॒ऽधिः ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सँ सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अचिक्रदत्। वृषा। हरिः। महान्। मित्रः। न। दर्शतः॥ सम्। सूर्य्येण। दिद्युतत्। उदधिरित्युदऽधिः। निधिरिति निऽधिः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 22
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यो वृषा हरिर्महानचिक्रदन्मित्रो न दर्शतः सूर्येण सह उदधिर्निधिरिव संदिद्युतत् स एव विद्युद्रूपोऽग्निः सर्वैः संप्रयोज्यः॥२२॥

    पदार्थः

    (अचिक्रदत्) शब्दं कुर्वन् (वृषा) वर्षकः (हरिः) आशुगन्ता (महान्) सर्वेभ्यो ज्येष्ठः (मित्रः) सखा (न) इव (दर्शतः) द्रष्टव्यः (सम्) (सूर्य्येण) सवित्रा (दिद्युतत्) विद्योतते (उदधिः) उदकानि धीयन्ते यस्मिँस्तत् समुद्रोऽन्तरिक्षं वा (निधिः) निधीयन्ते पदार्थो यस्मिन् सः॥२२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः! यथा वृषभास्तुरङ्गाश्च शब्दायन्ते यथा सखा सखीन् प्रीतयति, तथैव सर्वैर्लोकैः सह वर्त्तमाना विद्युत् सर्वान् प्रकाशयति तां विजानीत॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (वृषा) वर्षा का निमित्त (हरिः) शीघ्र चलनेवाला (महान्) सबसे बड़ा (अचिक्रदत्) शब्द करता हुआ (मित्रः, न) मित्र के तुल्य (दर्शतः) देखने योग्य (सूर्येण) सूर्य के साथ (उदधिः, निधिः) जिसमें पदार्थ रक्खे जाते तथा जिसमें जल इकट्ठे होते उस समुद्र वा आकाश में (सम्, दिद्युतत्) सम्यक् प्रकाशित होता है, वही बिजुली रूप अग्नि सबको कार्य में लाने योग्य है॥२२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! जैसे बैल वा घोड़े शब्द करते और जैसे मित्र मित्रों को तृप्त करता है, वैसे ही सब लोकों के साथ वर्त्तमान विद्युत्रूप अग्नि सबको प्रकाशित करता है, उसको जानो॥२२॥

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    विषय

    सार पदार्थ ग्रहण करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (वृषा) शत्रुओं को रोकने में समर्थ, प्रजाओं पर सुखों की वर्षा करने वाला पुरुष मेघ के समान (अचिक्रदत् ) गर्जन करता है । (हरिः) प्रजाओं के दुःखों को हरने और सूर्य के समान प्रजा से कर लेने वाला होकर, (मित्र: न) सूर्य के समान सबके प्रति समान भाव से स्नेही, न्यायकारी, (दर्शत: ) सब से दर्शनीय और सबका द्रष्टा है । वह ही (सूर्येण) सूर्य के समान तेज से ( सं दिद्युतत् ) अच्छी प्रकार चमके | वह शौर्य, वीर्य, बल, पराक्रम और उपकार आदि अपने गुणों को प्रकाशित करे | वह (उदधिः) सागर के समान गम्भीर हो और ( निधिः) कोश, खजाने के समान सब ऐश्वर्यों का रक्षक हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञः । परोष्णिक । ऋषभः ॥

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    विषय

    लोक-संग्रह

    पदार्थ

    गतमन्त्र में (घर्म) = रक्षा द्वारा अपना वर्धन करके औरों के हित में प्रवृत्त होने का उल्लेख है। यह औरों के हित में प्रवृत होनेवाला व्यक्ति १. (अचिक्रदत्) = शब्द करता है, औरों को ज्ञान का उपदेश देता है। महान् इस ज्ञान उपदेश के द्वारा २. (वृषाः) = यह औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है । ३. (हरिः) = उनके दुःखों का हरण करता है। ४. अपने इस महान् हितकार्य में यह विशाल हृदयवाला होता है। इसके हितकार्य में 'जाति, देश व धर्म' का बन्धन नहीं होता। यह सभी का हित करता है, सम्पूर्ण वसुधा को अपना कुटुम्ब समझता है । ५. यह (मित्रः न) = सूर्य के समान (दर्शतः) = दर्शनीय होता है। बड़ा तेजस्वी होता है ६. (सूर्येण सं विद्युतत्) = ज्ञान के सूर्य से निरन्तर चमकता है। ७. (उदधि:) = यह ज्ञान का समुद्र बन जाता है अथवा समुद्र के समान गम्भीर होता है तथा ८. दिव्य गुणों का (निधिः) = कोश बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर्म की रक्षा से स्वयं बढ़कर औरों को बढ़ानेवाला 'दीर्घतमा' ज्ञान का उपदेश करता है और इस प्रकार सबके दुःखों को दूर करने के लिए यत्नशील होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! पर्जन्याचे निमित्त असलेला, घोडे व बैलाप्रमाणे आवाज करणारा, मित्राप्रमाणे तृप्त करणारा, आकाशात किंवा समुद्रात असलेला विद्युतरूपी अग्नी सर्वांना प्रकाशित करतो हे जाणा.

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    विषय

    पुन्हा, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्युत विषयी विशेषणें सांगितली आहेत) हे मनुष्यांनो, ही विद्युत (कृषा) वृष्टिचे कारण असून (हरि) शीघ्रगामी आहे. ही (महान्) महती शक्ती असून (अचिक्रदत्) (आकाशात मोठा ध्वनी निर्माण करते) ही विद्युत (मित्रः) सर्वांचा मित्र म्हणजे सहायक असून (दर्शतः) पाहण्याचे साधन आहे वा दर्शनीय आहे. (सूर्येण) सूर्यासह ही विद्युत (उदधिः, निधिः) ज्यात पदार्थ ठेवले जातात अथवा ज्यात जल संचित होतात, त्या आकाशात वा समुद्रात (सम्, विद्युतत्) सम्यकपणे प्रकाशित होते. त्या विद्युतरूप अग्नीचा उपयोग करणे सर्वांच्या हिताचे आहे. ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. हे मनुष्यांनो, जसे बैल अथवा घोडे आणि मित्र मित्रांना तृप्त करतात, तद्वत सर्वांच्या जवळ असलेला विद्युत अग्नी सर्वांना प्रकाशित करतो. तुम्ही त्याच्याविषयी जाणून घ्या. ॥22॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    All should understand lightning-fire, the cause for rain, fast in motion, mighty, roaring, like friend fair to see, shining with the Sun in the atmosphere, the ocean of water.

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    Meaning

    Agni, brilliant light of cosmic yajna, roaring with thunder, showering with the clouds, shooting as lightning, great and glorious, universal friend, bright and beautiful, and blazing with the sun is a jewel treasure of wealth deep as the oceans of space.

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    Translation

    The huge rain-cloud thunders loudly. The sun cannot be seen. This reservoir of waters (i. e. cloud), the store of riches, glows illuminated by the sun. (1)

    Notes

    Acikradat, पुनः पुनः शब्दं अकरोत् (करोति), makes noise again and agin; thunders; neighs; makes noise like a neighing horse. Vṛṣā, one that makes rain; a rainy cloud. Also, powerful, virile. Also, showerer of bounties. Harih, cloud; also, horse; also, one that takes away the saps (रसानां हर्ता ) । Mitrah,सूर्य:, sun. Na darśataḥ, is not seen. Also, इव दर्शनीय:, beautiful to see like a friend. Udadhiḥ, reservoir of waters. Nidhiḥ, store (of enjoyments); treasure.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহা (বৃষা) বর্ষার নিমিত্ত (হরিঃ) শীঘ্রগামী (মহান্) সর্বাপেক্ষা বৃহৎ (অচিক্রদৎ) শব্দ করিয়া (মিত্রঃ, ন) মিত্রতুল্য (দর্শতঃ) দেখিবার যোগ্য (সূর্য়েণ) সূর্য্যের সঙ্গে (উদধেঃ, নিধিঃ) যন্মধ্যে পদার্থ রাখা হয় তথা যন্মধ্যে জল একত্রিত হয়, সেই সমুদ্র বা আকাশে (সম্, দিদ্যুতৎ) সম্যক্ প্রকাশিত হয়, সেই বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি সকলকে কার্য্যে আনিবার যোগ্য ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে, হে মনুষ্যগণ ! যেমন বৃষ বা অশ্ব শব্দ করে এবং যেমন মিত্র মিত্রদিগকে তৃপ্ত করে সেইরূপ সব লোক-লোকান্তর সহ বর্ত্তমান বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি সকলকে প্রকাশিত করে, তাহাকে জানিও ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অচি॑ক্রদ॒দ্ বৃষা॒ হরি॑র্ম॒হান্ মি॒ত্রো ন দ॑র্শ॒তঃ ।
    সꣳ সূর্য়্যে॑ণ দিদ্যুতদুদ॒ধির্নি॒ধিঃ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অচিক্রদদিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । পরোষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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