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यजुर्वेद अध्याय - 38

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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - वाग्देवता छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः
    116

    यस्ते॒ स्तनः॑ शश॒यो यो म॑यो॒भूर्यो र॑त्न॒धा व॑सु॒विद्यः सु॒दत्रः॑।येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्य्या॑णि॒ सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वेऽकः।उ॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। स्तनः॑। श॒श॒यः। यः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। यः॒। र॒त्न॒धा इति॑ रत्न॒ऽधाः। व॒सु॒विदिति॑ वसु॒ऽवित्। यः। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑ ॥ येन॑। विश्वा॑। पुष्य॑सि। वार्य्या॑णि। सर॑स्वति। तम्। इ॒ह। धात॑वे। अ॒क॒रित्य॑कः। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। ए॒मि॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्या रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः । येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वत्तमिह धातवे कः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। स्तनः। शशयः। यः। मयोभूरिति मयःऽभूः। यः। रत्नधा इति रत्नऽधाः। वसुविदिति वसुऽवित्। यः। सुदत्र इति सुऽदत्रः॥ येन। विश्वा। पुष्यसि। वार्य्याणि। सरस्वति। तम्। इह। धातवे। अकरित्यकः। उरु। अन्तरिक्षम्। अनु। एमि॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रीपुरुषौ किं कुर्य्यातामित्याह॥

    अन्वयः

    हे सरस्वति स्त्रि! यस्ते शशयः स्तनो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रो येन विश्वा वार्य्याणि पुष्यसि, तमिह धातवेऽकः। तेनाहमुर्वन्तरिक्षमन्वेमि॥५॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) तव (स्तनः) दुग्धाधारमङ्गम् (शशयः) शेते यस्मिन् सः (यः) (मयोभूः) यो मयः सुखं भावयति सः (यः) (रत्नधाः) यो रत्नानि दधाति सः (वसुवित्) यो वसूनि धनानि विन्दति प्राप्नोति सः (यः) (सुदत्रः) शोभनं दत्रं दानं यस्य सः (येन) (विश्वा) समग्राणि (पुष्यसि) (वार्याणि) वरितुमर्हाणि (सरस्वति) बहुविज्ञानयुक्ते (तम्) (इह) अस्मिन् संसारे (धातवे) धातुम् (अकः) कुर्य्याः (उरु) बहु (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (अनु) (एमि) प्राप्नोमि॥५॥

    भावार्थः

    यदि स्त्री न स्यात् तर्हि बालकानां पालनमप्यशक्यं भवेत्। यया पुरुषो बहुसुखं येन स्त्री च पुष्कलं सुखमाप्नुयात् तौ द्वावितरेतरं विवहेताम्॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सरस्वति) बहुत विज्ञानवाली स्त्रि! (यः) जो (ते) तेरा (शशयः) जिसके आश्रय से बालक सोवे वह (स्तनः) दूध का आधार थन तथा (यः) जो (मयोभूः) सुख सिद्ध करनेहारा (यः) जो (रत्नधाः) उत्तम-उत्तम गुणों का धारणकर्त्ता (वसुवित्) धनों को प्राप्त होनेवाला और (यः) जो (सुदत्रः) सुन्दर दान देनेवाला पति (येन) जिसके आश्रय से (विश्वा) सब (वार्य्याणि) ग्रहण करनेयोग्य वस्तुओं को (पुष्यसि) पुष्ट करती है, (तम्) उसकी (इह) इस संसार में वा घर में (धातवे) धारण करने वा दूध पिलाने को नियत (अकः) कर, उससे मैं (उरु) अधिकतर (अन्तरिक्षम्) आकाश का (अन्वेमि) अनुगामी होऊं॥५॥

    भावार्थ

    जो स्त्री न होवे तो बालकों की रक्षा होना भी कठिन होवे। जिस स्त्री से पुरुष बहुत सुख और पुरुष से स्त्री भी अधिकतर आनन्द पावे, वे ही दोनों आपस में विवाह करें॥५॥

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    विषय

    पृथ्वी स्त्री का समान वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( सरस्वति) सरस्वति ! उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों एवं ज्ञानों से युक्त राजसभे ! (स्तन) माता का स्तन जिस प्रकार (शशय:) बालक को सुख की नींद सुलाने वाला, ( मयोभूः ) सुखजनक ( रत्नधा ) उत्तम ज्ञान और बल का दाता एवं रम्य, बालक का पोषक, (वसुवित्) प्राणों को प्राप्त कराने वाला है और जिससे समस्त (वार्याणि) वरण करने योग्य' गुणों और बलों को माता पुष्ट करती है उसी प्रकार (ते) तेरा (स्तन) उत्तम दुग्ध के समान मधुर ज्ञानो देश प्रदान करने वाला पुरुष, सभापति ( शशवः) प्रजा को सुख शान्ति से रखने वाला है (यः) जो (मयोभूः) प्रजा के कल्याण, सुख को उत्पन्न करता है, (य: रक्षा) जो रमण योग्य उत्तम गुणों और ऐश्वर्यों और उत्तम नररत्नों का पालन-पोषण करता है, ( यः वसुवित् ) जो वसु नामक ब्रह्मचारियों को आचार्य के समान, विद्वानों को प्राप्त करता, या राष्ट्र में बसने वाले उत्तम प्रजाजनों को ऐश्वर्य प्राप्त कराने हारा है और जो (सुदनः) उत्तम दानशील है (येन) जिससे तू राजसभा (विश्वा) समस्त (वार्याणि) वरण करने योग्य, वाञ्छनीय ऐश्वर्यो, कार्यों और राज्यांगों को (पुण्यसि) पुष्ट करती है (तम् ) उस 'स्तन' - अर्थात् ज्ञानोपदेष्टा विद्वान् पुरुष को (इह ) इस राष्ट्र में (धात) प्रजा को धारण, पालन-पोषण करने के लिये (अकः) नियुक्त कर । (उरु) मैं विशाल (अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष आकाश का ( अनु एमि ) अनुयायी होऊं, उसका अनुकरण करूं । मैं नियुक्त विद्वान् भी अन्तरिक्ष, मेघ के समान ज्ञान और ऐश्वर्य की धाराओं से वर्षा कर प्रजा को पुष्ट करूं । सरस्वती वेद वाणी का उपदेष्टा आचार्य, सरस्वती का उपदेश करने से उसका 'स्तन' है । वह बालक के समान शिष्य को शान्तिप्रद, सुखजनक, उत्तम ज्ञानपोषक वसु ब्रह्मचर्य द्वारा प्राणों को पुष्ट करता, उत्तम ज्ञान दान करता है, उससे ही सब प्राप्य ज्ञानों और वीर्यों को पुष्ट करता है । आचार्य भी अन्तरिक्षगत मेघ के समान शिष्यों पर ज्ञानवर्षण करे । मेघ के समान आचार्य प्रजापति का वर्णन देखो बृहदारण्यक उप० । ( ३ ) गृहस्थपक्ष में-पुरुष अन्तरिक्ष के समान पुत्रादि पर अनुग्रहकारी एवं स्त्री का भरणपोषणकारी हो । 'स्तन : ' – ष्टन वन शब्दे । भ्वादि: । स्तन गदी देवशब्दे । चुरादिः स्तनतीति स्तनः आचार्यो विद्वान् आज्ञापकः । स्तनयतीति स्तनः मेघः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा । वाग् देवता । निचृदतिजगती । निषादः ॥

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    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में प्राण, ज्ञान व जितेन्द्रियता की साधना का उल्लेख हुआ है। उस साधना में सर्वप्रमुख सहायक वेदवाणी है। वेदवाणी को 'गौ' भी कहते हैं। इस वेदवाणीरूप गौ से मन्त्र का ऋषि 'दीर्घतमा' कहता है कि (य:) = जो (ते) = तेरा (स्तनः शशय:) = [शशयः शिश्यान :- नि०] हमारे जीवनों को प्लुतगतिवाला बनानेवाला है (तम्) = उसको (इह) = यहाँ (धातवे) = हमारे पीने के लिए (अक:) = कर, अर्थात् तेरा ज्ञान हमें क्रियाशील बनाये। २. हमें तू उस ज्ञान का पान करा जो (मयोभूः) = कल्याण उत्पन्न करनेवाला है। वस्तुतः क्रियाशीलता का ही परिणाम मंगल है। 'मंगल' शब्द 'मगि गतौ' धातु से बना है। गति में ही कल्याण है। अकर्मण्यता अकल्याण का कारण है। ३. उस स्तन को पिला (यः) = जो (रत्नधा) = हममें रमणीय वस्तुओं का धारण करनेवाला है। इस ज्ञान की वाणी को पीकर हमारे जीवन से सब बुराइयाँ समाप्त हो जाती हैं और हमारा जीवन रमणीय बन जाता है। ४. हमें उस स्तन का पान करा जो वसुवित्-निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त कराता है। इस ज्ञान की वाणी से हम वसुओं को प्राप्त करने की क्षमतावाले होते हैं । ५. यह वेदवाणी का स्तन तो हमारे लिए (सुदत्र:) = सब उत्तम वस्तुओं को [सु] देकर [द] हमारी रक्षा करनेवाला है । ६. हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवि ! (येन) = जिस अपने स्तन से तू (विश्वा) = सब वार्याणि वरणीय, उत्तम वसुओं का पुष्यसि -पोषण करती है उस स्तन को तू हमें पिलानेवाली हो। ७. तेरे इस स्तन का पान करके मैं उरु (अन्तरिक्षम्) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को (अन्वेमि) = प्राप्त होता हूँ। इस ज्ञान से मेरा सारा व्यवहार विशाल हृदय के अनुकूल होता है, मेरे व्यवहार में संकुचित-हृदयता नहीं टपकती।

    भावार्थ

    भावार्थ-वेदवाणीरूप गौ के स्तन का पान करके मैं 'क्रियाशील, मंगलमय, ज्ञनसम्पन्न, व वसुमान्' बनता हूँ। सब वरणीय वसुओं को प्राप्त करता हूँ और विशाल हृदय बनता हूँ। सूचना - वेद की शिक्षा मनुष्य को कहती है १. 'मनुर्भव' तू मनु बन, समझदार बन २. 'माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ' भूमि को अपनी माता समझ । भूमि के एकदेश को अपनाकर तू देशभक्ति के नाम पर भी संकुचित हृदय मत बन । वस्तुत: यही मनुष्य दीर्घतमा = अज्ञान को विदीर्ण करनेवाला होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जर स्री नसती तर बालकांचे रक्षण होणे कठीण आहे. ज्या स्रीकडून पुरुषाला जास्त सुख मिळते व पुरुषापासून स्रीला जास्तीत जास्त आनंद मिळतो त्या दोघांनीच आपापसात विवाह करावा.

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    विषय

    स्त्री-पुरुषांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (सरस्वति) अति विज्ञानवती स्त्री, (घरातील सून) (ते) तुझ्या (शशयः) शिशूच्या जीवनाचे आधार (यः) हे जे (स्तनः) दुग्धधारावर्षक स्तन आहेत, आणि (यः) जो (मयोभः) सुखदायक पती आहे, तो (रत्नधाः) उत्तम गुणधारक असून (वसुवित्) धनसंपदा जवळ बाळगणारा आहे, तसेच (यः) तो (सुदत्रः) शुभदान देणारा देखील आहे. (येन) ज्या पतीच्या आश्रयामुळे तुझ्या घरासाठी (विश्‍वा) सर्व (वार्य्याणि) आवश्यक पदार्थ येतात (व त्याद्वारे तू) सर्वांना पोषण देतेस (तत्) त्या पतीला तू (इह) या जगात वा या घरात (धातवे) बालकाच्या धारण-पोषणासाठी अथवा त्याला दुध पाजविण्यासाठी (अकः) नियत कर (शिशूच्या पालन कार्यात पतीचाही सहभाग असावा) (घराची अशी सुंदर व्यवस्था पाहून) मी (घराचा ज्येष्ठ पुरुष-तुझा सासरा वा आजा सासरा) (उरु) मोठ्या समाधानाने (अन्तरिक्षम्) आकाशाचा (अन्वेमि) अनुगामी होईन. (मृत्यूस आनंदाने स्वीकारीन) ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - घरात स्त्री नसेल, तर बालकांचे रक्षण-पालन आदी कामें कशी होणार? स्त्रीच्या स्वभाव आणि आचरणाने पुरूष प्रसन्न होत असेल आणि पुरूषाच्या स्वभाव व आचरण स्त्रीला आवडत असेल (दोघेही एकमेकावर प्रसन्न असतील) त्यानीच एकमेकाशी विवाह करावा (बे जोड वा बे मेल विवाह नको) ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O highly learned woman, thy breast milks the child and makes it sleep. Thy husband is bringer of happiness, possessor of noble qualities, master of riches, and charitable in nature. With his aid thou acquirest all desirable objects. Establish him in this house for acceptance. May I, through him rise to the vast summit of prosperity.

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    Meaning

    Sarasvati, like the mother’s breast which overflows for the baby, which is blissful, and which is a generous jewel box of the choicest gifts of life, is your gift of the Word and Vision, which is supremely generous, and by which you feed the entire humanity. That stream of voice and vision, mother, let flow here on earth for the nourishment of your children so that I too may follow the voice and rise to the vast skies.

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    Translation

    O divine speech, may you suckle me your breast that brings sleep, and is source of bliss, store of jewels, finder of treasures, and liberal donor, and with which you nourish all the covetable things. (1) I hereby move into the vast mid-space. (2)

    Notes

    Addressed to Sarasvati, Vägdevī. Stanaḥ, breast; teat. Saśyaḥ, that brings sleep; tranquilizer. Mayobhūḥ, source of bliss; fount of pleasure. Ratnadhã, store of jewels. Sudatraḥ, a liberal donor. Vāryāṇi, वरणीयानि, coveted things. Dhatave akaḥ, पानार्थं कुरु,suckle me (your breast). Uru, vast.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স্ত্রীপুরুষৌ কিং কুর্য়্যাতামিত্যাহ ॥
    পুনঃ স্ত্রী-পুরুষ কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সরস্বতি) বহু বিজ্ঞানযুক্তা স্ত্রী ! (য়ঃ) যে (তে) তোমার (শশয়ঃ) যাহার আশ্রয়ে বালক শয়ন করে, সে (স্তনঃ) দুধের আধার স্তন তথা (য়ঃ) যে (ময়োভূঃ) সুখ সিদ্ধকারী (য়ঃ) যে (রত্নধাঃ) উত্তম গুণের ধারণকর্তা (বসুবিৎ) ধনকে যে প্রাপ্ত করে এবং (য়ঃ) যে (সুদত্রঃ) সুন্দর দানদাতা পতি (য়েন) যাহার আশ্রয়ে (বিশ্বা) সকল (বার্য়্যাণি) গ্রহণ করিবার যোগ্য বস্তুগুলিকে (পুষ্যসি) পুষ্ট করে (তম্) তাহাকে (ইহ) এই সংসারে বা গৃহে (ধাতবে) ধারণ করিতে বা দুগ্ধ পান করাইতে নিশ্চিত (অকঃ) করিয়া, তদ্দ্বারা আমি (উরু) অধিকতর (অন্তরিক্ষম্) আকাশের (অন্বেসি) অনুগামী হই ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- স্ত্রী না হইলে বালকদের রক্ষা হওয়াও কঠিন হইবে । যে সব স্ত্রী দ্বারা পুরুষ বহু সুখ ও পুরুষ হইতে স্ত্রীও অধিকতর আনন্দ পায়, তাহারা উভয়েই পরস্পর বিবাহ করিবে ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্তে॒ স্তনঃ॑ শশ॒য়ো য়ো ম॑য়ো॒ভূর্য়ো র॑ত্ন॒ধা ব॑সু॒বিদ্যঃ সু॒দত্রঃ॑ ।
    য়েন॒ বিশ্বা॒ পুষ্য॑সি॒ বার্য়্যা॑ণি॒ সর॑স্বতি॒ তমি॒হ ধাত॑বেऽকঃ ।
    উ॒র্ব᳕ন্তরি॑ক্ষ॒মন্বে॑মি ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্ত ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বাগ্ দেবতা । নিচৃদতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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