यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 20
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
154
चतुः॑स्रक्ति॒र्नाभि॑र्ऋ॒तस्य॑ स॒प्रथाः॒ स नो॑ वि॒श्वायुः॑ स॒प्रथाः॒ स नः॑ स॒र्वायुः॑ स॒प्रथाः॑।अप॒ द्वे॒षो॒ऽअप॒ ह्वरो॒ऽन्यव्र॑तस्य सश्चिम॥२०॥
स्वर सहित पद पाठचतुः॑स्रक्ति॒रिति॒ चतुः॑ऽस्रक्तिः। नाभिः॑। ऋ॒तस्य॑। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑। सः। नः॒। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑। सः। नः॒। स॒र्वायु॒रिति॑ स॒र्वऽआ॑युः। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑ ॥ अप॑। द्वेषः॑। अप॑। ह्वरः॑। अ॒न्यव्र॑त॒स्येत्य॒न्यऽव्र॑तस्य। स॒श्चि॒म॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
चतुःस्रक्तिर्नाभिरृतस्य सप्रथाः स नो विश्वायुः सप्रथाः स नः सर्वायुः सप्रथाः । अप द्वेषोऽअप ह्वरोन्यव्रतस्य सश्चिम ॥
स्वर रहित पद पाठ
चतुःस्रक्तिरिति चतुःऽस्रक्तिः। नाभिः। ऋतस्य। सप्रथा इति सऽप्रथाः। सः। नः। विश्वायुरिति विश्वऽआयुः। सप्रथा इति सऽप्रथाः। सः। नः। सर्वायुरिति सर्वऽआयुः। सप्रथा इति सऽप्रथाः॥ अप। द्वेषः। अप। ह्वरः। अन्यव्रतस्येत्यन्यऽव्रतस्य। सश्चिम॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्या किं कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा चतुःस्रक्तिर्नाभिरिव सप्रथा अन्यव्रतस्यर्त्तस्य परमात्मनः सेवां करोति, स सप्रथा विश्वायुर्नोऽस्मान् बोधयतु, स सप्रथाः सर्वायुर्नः परमेश्वरविद्यां ग्राहयतु, येन वयं द्वेषोऽपसश्चिम, ह्वरोऽप सश्चिम, तथा यूयमपि कुरुत॥२०॥
पदार्थः
(चतुःस्रक्तिः) चतुरस्रा (नाभिः) नाभिरिव (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य (सप्रथा) विस्तारेण सह वर्त्तमानः (सः) (नः) अस्मान् (विश्वायुः) सर्वमायुर्यस्य (सप्रथाः) विस्तारेण सह वर्त्तमानः (सः) (नः) अस्मान् (सर्वायुः) सम्पूर्णजीवनम् (सप्रथाः) विस्तीर्णसुखः (अप) दूरीकरणे (द्वेषः) ये द्विषन्ति तान् (अप) (ह्वरः) ये ह्वरन्ति कुटिलं गच्छन्ति तान् (अन्यव्रतस्य) अन्येषां पालने व्रतं शीलं यस्य तस्य (सश्चिम) दूरे प्राप्नुयाम गमयेम वा॥२०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथा प्राप्तरसा नाभी रसमुत्पाद्य सर्वान् शरीरावयवान् पुष्णाति, तथा सेविता विद्वांस उपासितः परमेश्वरश्च द्वेषं कुटिलतादिदोषांश्च निवार्य्य सर्वान् जीवान् संरक्षतीति मत्वा तेषां तस्य च सततं सेवा कार्य्या॥२०॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (चतुःस्रक्तिः) चार कोनेवाली (नाभिः) नाभि मध्य मार्ग के तुल्य निष्पक्ष (सप्रथाः) विस्तार के साथ वर्त्तमान सत्यपुरुष (अन्यव्रतस्य) दूसरे सब जगत् की रक्षा करने के स्वभाववाले (ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमात्मा की सेवा करता (सः) वह (सप्रथाः) विस्तृत कार्य्योंवाला (विश्वायुः) सम्पूर्ण आयु से युक्त पुरुष (नः) हम लोगों को बोधित करे। (सः) वह (सप्रथाः) अधिक सुखी (सर्वायुः) समग्र अवस्थावाला पुरुष (नः) हमको ईश्वरसम्बन्धी विद्या का ग्रहण करावे, जिससे हम लोग (द्वेषः) द्वेषी शत्रुओं को (अप, सश्चिम) दूर पहुंचावें और (ह्वरः) कुटिल जनों को (अप) पृथक करें। वैसे तुम लोग भी करो॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे रस को प्राप्त हुई नाभि रस को उत्पन्न कर शरीर के अवयवों को पुष्ट करती, वैसे सेवन किये विद्वान् वा उपासना किया परमेश्वर द्वेष और कुटिलतादि दोषों को निवृत्त करा कर सब जीवों की रक्षा करते वा करता है, उन विद्वानों और उस परमेश्वर की निरन्तर सेवा करनी चाहिये॥२०॥
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे महावैद्य ! सर्वरोगनाशकेश्वर ! चार कोणेवाली नाभि [मर्मस्थान] (ऋतस्य) ऋत [रस] की भरी, नैरोग्य और विज्ञान का घर (सप्रथा:) विस्तीर्ण और सुखयुक्त आपकी कृपा से हो तथा आपकी कृपा से (विश्वायुः) पूर्ण आयु हो। आप जैसे (सप्रथाः) सर्वसामर्थ्य से विस्तीर्ण हो, वैसे ही (नः, सर्वायुः सप्रथा:) विस्तृत सुखयुक्त विस्तारसाहित सर्वायु हमको दीजिए। हे शान्तस्वरूप ! हम (अपद्वेषः) आपकी कृपा से द्वेषरहित तथा (अपह्वरः) चलन – [कम्पन] -रहित हों, आपकी आज्ञा और आपसे भिन्न को लेशमात्र भी ईश्वर न मानें, यही हमारा व्रत है, (अन्यव्रतस्य) इससे अन्य व्रत को कभी न माने, किन्तु आपको (सश्चिम) सदा सेवें, यही हमारा परमनिश्चय है । इस परमनिश्चय की रक्षा आप ही स्वकृपा से करें ॥ ४१ ॥
विषय
सार पदार्थ ग्रहण करने का उपदेश ।
भावार्थ
हे तेजस्वी पुरुष ! राजन् ! (चतुस्रक्तिः) तू चारों दिशाओं में प्रबल हथियारों वाला हो । तू (ऋतस्य नाभिः ) सत्य, न्यायव्यवस्था, धर्म मर्यादा और कानून का नाभि, केन्द्र हो । (सः) वह तृ (सप्रथा :) विस्तृत शक्ति (सः) वह तू (सप्रथाः) अति विस्तृत यश और राष्ट्र वाला होकर (विश्वायुः) पूर्ण आयु होकर, जीवन भर (नः) हमारी रक्षा कर । (सः) वह तू (नः) हमारे कल्याण के लिये (सर्वायुः सप्रथा :) पूर्ण जीवन को प्राप्त हो और विस्तृत कीर्ति वाला हो । हम लोग (द्वेषः ) द्वेष करने वाले और (ह्वाः) कुटिल चाल वाले और (अन्यव्रतस्य) अन्य, भिन्न शत्रु के कर्मों वाले पुरुष को (अप सश्चिम) दूर करें । शत्रुवाच्यान्यशब्दः प्रायो वेदे दृश्यते । यथा 'अन्यांस्तपन्तु हेतय: ० ' इत्यादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञः । निचृत्त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
यज्ञमय जीवन
पदार्थ
१. (ऋतस्य) = [ऋत - यज्ञ - नि० ८1६] यज्ञ का (नाभिः) = केन्द्र, अर्थात् यज्ञरूप केन्द्र (चतुःस्रक्तिः) = ' धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला है। 'स्रक्ति' शब्द का अर्थ दिशाएँ भी होता है। यज्ञ यदि केन्द्र है तो उसकी विविध दिशाएँ धर्म आदि हैं, अर्थात् यज्ञ से ये सब सिद्ध होते हैं । २. (स प्रथा:) = यह यज्ञ विस्तारवाला है, हमारी सब शक्तियों का विकास यज्ञ से ही होता है। ('अनेन प्रसविष्यध्वम्') = इन शब्दों में यज्ञ ही फूलने - फलने का मार्ग है। ३. (सः) = वह यज्ञ (नः) = हमारे लिए (विश्वायुः पूरे) = जीवन को देनेवाला है। [विश्व + आयु] अर्थात् यज्ञ हमें शतायु बनाता है और सौ के सौ वर्षों में (सप्रथा:) = हमारी शक्तियों को विस्तृत रखता है। ३. (सः) = वह यज्ञ (नः) = हमें (सर्वायुः) = पूर्ण जीवन देता है, अर्थात् शरीर के स्वास्थ्य के साथ मन की निर्मलता तथा मस्तिष्क की दीप्ति प्राप्त कराके हमारे जीवन को पूर्ण बनाता है। (सप्रथा:) = हमारी शक्तियों को अन्त तक विस्तृत किये रखता है। ४. प्रभो! इस यज्ञ के द्वारा हम (अन्यव्रतस्य) = शास्त्रविरुद्ध कर्मोंवाले ['अकर्मा दस्युः अभि ने अमन्तुः अन्यव्रतो अमानुष:'] दस्युओं से अपनाये जानेवाले (द्वेषः) = द्वेष को (अप सश्चिम) = अपने से दूर करें। ह्वरः कुटिलता को (अप सश्चिम) = अपने से दूर करें, अर्थात् इस यज्ञशीलता से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हमारे जीवन में वह द्वेष और वह कुटिलता न आएगी जो शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले लोगों में आ जाया करती है।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञ के निम्न लाभ हैं - १. इससे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है। २. यह हमारी शक्तियों का विस्तार करते हुए शतायु बनाता है। ३. इससे हम शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों के स्वास्थ्य को प्राप्त करके पूर्ण जीवनवाले होते हैं ४. हमसे द्वेष व कुटिलता दूर रहती है।
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! रस मिळाल्यामुळे नाभी जशी रस उत्पन्न करून त्या रसाने शरीराचे अवयव बलवान करते, तसे विद्वानांच्या संगतीने किंवा उपासना केल्याने परमेश्वर द्वेष, कुटिलता इत्यादी दोष नष्ट करून सर्व जीवांचे रक्षण करतो. त्या विद्वानांची व परमेश्वराची सतत सेवा करावी.
विषय
मनुष्यांनी काय करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो ज्याप्रमाणे (चतुः स्रक्तिः) चार दिशांना अथवा (नाभिः) (मध्यभागात स्थित नाभि शरीरातील अंगांना अन्नरस पोहचविते) त्याप्रमाणे (सप्रथाः) आपल्या विस्तृत कीर्ती व महान विप्रत्तेद्वारे (अन्यव्रतस्य) सर्व लोकांचे कल्याण करण्याचे व्रत घेतलेला सत्पुरूष असतो. तो सर्वरक्षक परमात्म्याच्या (ऋतस्य) सत्य स्वरूपाचीही सेवा करतो. (सः) वह (सप्रथाः) विविध कार्य कुशल आणि (विश्वायुः) पूर्ण आयू जगलेला दीर्घायुषी पुरुष (नः) आम्हा (उपासकांनाही) उपदेश देऊन प्रबोधित करो. (सः) तो (सप्रथाः) अधिक सुखी आणि (विश्वायुः) संपूर्ण आयू जगलेल्या पुरुषाने (नः) आम्हाला ईश्वरोपासना विद्या शिकवावी ज्यायोगे आम्ही (द्वेषः) आमच्याशी द्वेष करणार्या शत्रूंना (अप, सश्चिम) दूर हाकलून देऊ आणि (ह्वरः) कुटिल कष्टी लोकांना (अप) आपल्यापासून दूर ठेवू शकू. ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे शरीरातील नाभी उत्पन्न रस शरीरातील सर्व अवयवांपर्यंत पोहचविते, त्याचप्रमाणे विद्वजन आणि उपासना केल्यास परमेश्वर मनुष्याच्या द्वेष कुटिलता आदी दोष निवृत्त करतो व याप्रकारे सर्व प्राण्यांचे रक्षण करतो. त्यामुळे मनुष्याने विद्वज्जनांची सेवा व ईश्वराची उपासना अवश्य केली पाहिजे. ॥20॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे महावैद्या! सर्व रोगांचा नाश करणाऱ्या तुझ्या कृपेने चार कोनांनी युक्त असलेली नाभी [मर्मस्थान] रसयुक्त असावी. निरोगीपणा व विज्ञानाचे ते धामच असाये. (सप्रथाः) ते विशाल व सुखमय असावे, (विश्वायुः) तुझ्या कृपेने आम्ही आपले आयुष्य पूर्णपणे जगावे जसे तुझे सामर्थ्य सर्वत्र पसरलेले आहे. तसे आमचे जीवनहीं दीर्घ व सामर्थ्यवान असावे. हे शांतस्वरूप ईश्वरा! (अपद्वेषः) आम्ही द्वेषरहित असावे. (अपह्वरः) तुझ्या कृपेने आम्ही स्थिर असावे. तुझ्या आज्ञेविरुद्ध इतर कोणालाही ईश्वर मानता कामा नये. हेच आमचे व्रत आहे. त्याहून भिन्न कोणतेही व्रत आम्ही मानू नये. (सश्चिम) तुझीच सदैव आराधना करावी हाच आमचा प्रचंड निश्चय आहे या निश्चयाचे रक्षण करण्याची तू कृपा कर.॥४१॥
इंग्लिश (4)
Meaning
A godly person, like the four-cornered navel, serves in abundance, God, the Protector of the world and True in nature. May he, full of age and engagements teach us. May he, advanced in age and happiness instruct us in the knowledge of God, so that we may shun the hateful enemies, and cast aside the crooked persons.
Meaning
Ruler, head of the national yajna of governance and administration, well-armed you are all round in the four directions. Centre-hold of the law and the body- politic, you are expansive (omnipresent, as if, through the system). Universally popular, may you attain to full age to protect and promote us. Celebrated head of universal development and friend of all, may you live a full age of dignity for us. We reject hate and hostility, crooked opposition and those committed to contrary values.
Purport
O the Great Physician ! Destroyer of all ailments O God! Our navel which has four corners-nerves, veins, arteries, and muscles should be full of nectar, healthy and sound. It should be a store-house of and vitality, and a vast field of happiness for us. May duration of life of every being in the world extend to its fullest extent. Just as you by your Omnipotence pervade the whole universe, in the same way grant us a happy life with a span of hundred years, with all the worldly pleasures. O God! By your grace we should be without rm in our vows. We enmity against anybody, and be firm in should obey Your commandments, and never accept, in the least, anyone as God in place of You. That is our vow, we should always observe you as our Ruler. This is our solemn vow. This is our firm resolve. By Your Grace protect our firm resolve.
Translation
The navel of the truth extends far in all the four corners. May this truth, the life of all, make us expand far; may this truth, the complete life, make us expand far. May we drive away those who hate us, who are crooked, and who are of a different faith. (1)
Notes
Catuh sraktih, चतस्रः वक्तयः कोणा दिग् रूपा यस्य सः, चतुरस्र:, having four corners. Also, extending in all the four corners, i. e. quarters. Saprathāḥ, विस्तारशील: extending far. Viśvāyuḥ, सर्वस्य आयुष: दाता, bestower of whole life. Also, the life of all. Sarvãyuḥ, सर्वं आयु:, complete life. Also, bestower ofcomplete life. Apa dveṣaḥ, द्वेष अपगच्छतु, malice may go away (from us); वीतरागा: स्याम, may we become detached from passions. Also, may we drive away him, who hates us. Hvaraḥ, away go the crooked. Anyavratasya, of him, who is of a different faith. Apa saścima, may we drive away, दूरीकुर्म: ।
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যা কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্য কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন (চতুঃস্রক্তিঃ) চারি কোণযুক্ত (নাভিঃ) নাভি মধ্য মার্গের তুল্য নিষ্পক্ষ (সপ্রথাঃ) বিস্তারসহ বর্ত্তমান সৎপুরুষ (অন্যব্রতস্য) অন্য সব জগতের রক্ষা করিবার স্বভাবযুক্ত (ঋতস্য) সত্যস্বরূপ পরমাত্মার সেবা করে (সঃ) সে (সপ্রথাঃ) বিস্তৃত কার্য্যযুক্ত (বিশ্বায়ুঃ) সম্পূর্ণ আয়ুযুক্ত পুরুষ (নঃ) আমাদিগকে বোধিত করুক । (সঃ) সে (সপ্রথাঃ) অধিক সুখী (সর্বায়ুঃ) সমগ্র আয়ুযুক্ত পুরুষ (নঃ) আমাদেরকে ঈশ্বর সম্পর্কীয় বিদ্যার গ্রহণ করাক যাহাতে আমরা (দ্বেষঃ) দ্বেষী শত্রুদিগকে (অপ, সশ্চিম) দূরে সরাইয়া দিই এবং (হ্বরঃ) কুটিল লোকদেরকে (অপ) পৃথক করি, সেইরূপ তোমরাও কর ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! যেমন রসপ্রাপ্ত নাভি রসকে উৎপন্ন করিয়া শরীরের অবয়ব সকলকে পুষ্ট করে সেইরূপ সেবনীকৃত বিদ্বান্ বা উপাসনা করা পরমেশ্বর দ্বেষ ও কুটিলতা দোষগুলিকে নিবৃত্ত করিয়া সব জীবদের রক্ষা করে, সেই সব বিদ্বান্গণ এবং সেই পরমেশ্বরের নিরন্তর সেবা করা উচিত ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
চতুঃ॑স্রক্তি॒র্নাভি॑র্ঋ॒তস্য॑ স॒প্রথাঃ॒ স নো॑ বি॒শ্বায়ুঃ॑ স॒প্রথাঃ॒ স নঃ॑ স॒র্বায়ুঃ॑ স॒প্রথাঃ॑ । অপ॒ দ্বে॒ষো॒ऽঅপ॒ হ্বরো॒ऽন্যব্র॑তস্য সশ্চিম ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
চতুঃস্রক্তিরিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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