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यजुर्वेद अध्याय - 38

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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    137

    गा॒य॒त्रं छन्दो॑ऽसि॒ त्रैष्टु॑भं॒ छन्दो॑ऽसि॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्यां॑ त्वा॒ परि॑ गृह्णाम्य॒न्तरि॑क्षे॒णोप॑ यच्छामि। इन्द्रा॑श्विना॒ मधु॑नः सार॒घस्य॑ घर्मं पा॑त॒ वस॑वो॒ यज॑त॒ वाट्। स्वाहा॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मये॑ वृष्टि॒वन॑ये॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गा॒य॒त्रम्। छन्दः॑। अ॒सि॒। त्रैष्टु॑भम्। त्रैस्तु॑भ॒मिति॒ त्रैस्तु॑भम्। छन्दः॑। अ॒सि॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। त्वा॒। परि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒न्तरि॑क्षेण। उप॑। य॒च्छा॒मि॒ ॥ इन्द्र॑। अ॒श्वि॒ना॒। मधु॑नः। सा॒र॒घस्य॑। घ॒र्मम्। पा॒त॒। वस॑वः। यज॑त। वाट् ॥ स्वाहा॑। सूर्य॑स्य। र॒श्मये॑। वृ॒ष्टि॒वन॑य॒ इति॑ वृष्टि॒ऽवन॑ये ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गायत्रञ्छन्दो सि त्रैष्टुभञ्छन्दोसि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वा परिगृह्णाम्यन्तरिक्षेणोपयच्छामि । इन्द्राश्विना मधुनः सारघस्य घर्मम्पात वसवो यजत वाट् । स्वाहा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गायत्रम्। छन्दः। असि। त्रैष्टुभम्। त्रैस्तुभमिति त्रैस्तुभम्। छन्दः। असि। द्यावापृथिवीभ्याम्। त्वा। परि। गृह्णामि। अन्तरिक्षेण। उप। यच्छामि॥ इन्द्र। अश्विना। मधुनः। सारघस्य। घर्मम्। पात। वसवः। यजत। वाट्॥ स्वाहा। सूर्यस्य। रश्मये। वृष्टिवनय इति वृष्टिऽवनये॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रीपुरुषयोः कीदृशः सम्बन्धः स्यादित्याह॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र! यथा त्वं गायत्रं छन्द इव हृद्यां स्त्रियं प्राप्तवानसि, त्रैष्टुभं छन्दः इव प्रशंसितां लब्धवानसि, तथाऽहं त्वा दृष्ट्वा द्यावापृथिवीभ्यां प्रियां स्त्रियं परिगृह्णाम्यन्तरिक्षेणोपयच्छामि। हे अश्विना! स्त्रीपुरुषौ युवां तथैव वर्त्तेयाथाम्। हे वसवो विद्वांसो! यूयं स्वाहा मधुनः सारघस्य घर्मं पात सूर्य्यस्य वृष्टिवनये रश्मये वाट् यजत॥६॥

    पदार्थः

    (गायत्रम्) गायत्रीछन्दसा प्रकाशितम् (छन्दः) स्वतन्त्राह्लादकरमिव (असि) (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुभा व्याख्यातमर्थजातम् (छन्दः) स्वतन्त्रमिव (असि) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमीभ्याम् (त्वा) त्वाम् (परि) सर्वतः (गृह्णामि) स्वीकरोमि (अन्तरिक्षेण) उदकेन सह प्रतिज्ञाताम् (उप, यच्छामि) गृह्णामि (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (अश्विना) प्राणाऽपानाविव कार्यसाधकोै (मधुनः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (सारघस्य) सरघाभिर्मधुमक्षिकाभिर्निर्मितस्य (घर्मम्) सुखवर्षकं यज्ञम् (पात) रक्षत (वसवः) पृथिव्यादय इव प्रथमविद्याकल्पाः (यजत) सङ्गच्छध्वम् (वाट्) सुष्ठु (स्वाहा) सत्यया क्रियया (सूर्य्यस्य) (रश्मये) शोधनाय (वृष्टिवनये) वृष्टेः संविभाजकाय॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शब्दानामर्थैः सह वाच्यवाचकसम्बन्धः सूर्य्येण सह पृथिव्या रश्मिभिस्सह वृष्टेर्यज्ञेन सह यजमानस्यर्त्विजा चास्ति, तथैव विवाहितयोः स्त्रीपुरुषयोः सम्बन्धो भवतु॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी स्त्री-पुरुष का कैसा सम्बन्ध हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष! जैसे आप (गायत्रम्) गायत्री छन्द से प्रकाशित (छन्दः) स्वतन्त्र आनन्दकारक अर्थ के समान हृदय को प्रिय स्त्री को प्राप्त (असि) हैं, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्द से व्याख्यात हुए (छन्दः) स्वतन्त्र अर्थमात्र के समान प्रशंसित पत्नी को प्राप्त हुए (असि) हैं, वैसे मैं (त्वा) तुमको देखकर (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य-भूमि से अति शोभायमान प्रिया स्त्री को (परि, गृह्णामि) सब ओर से स्वीकार करता हूं और (अन्तरिक्षेण) हाथ में जल लेकर प्रतिज्ञा कराई हुई को (उप, यच्छामि) स्त्रीत्व के साथ ग्रहण करता हूं। हे (अश्विना) प्राण-अपान के तुल्य कार्यसाधक स्त्री-पुरुषो! तुम दोनों भी वैसे ही वर्त्ता करो। हे (वसवः) पृथिवी आदि वसुवों के तुल्य प्रथम कक्षा के विद्वानो! तुम लोग (स्वाहा) सत्या क्रिया से (मधुनः, सारघस्य) मक्खियों ने बनाये मधुरादि गुणयुक्त शहद और (घर्मम्) सुख पहुंचानेवाले यज्ञ की (पात) रक्षा करो। (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (वृष्टिवनये) वर्षा का विभाग करनेवाले (रश्मये) संशोधक किरण के लिये (वाट्) अच्छे प्रकार (यजत) संगत होओ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शब्दों का अर्थों के साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध, सूर्य के साथ पृथिवी का, किरणों के साथ वर्षा का, यज्ञ के साथ यजमान और ऋत्विजों का सम्बन्ध है, वैसे ही विवाहित स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध होवे॥६॥

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    विषय

    पृथ्वी स्त्री का समान वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) विद्वान् पुरुष ! ( गायत्रं छन्दः असि ) गायत्री छन्द २४ अक्षरों से युक्त होता है, उसी प्रकार तू २४ वर्ष के अक्षत बल वीर्यों से युक्त हो । (त्रैष्टुभं छन्दः असि) त्रिष्टुप छन्द ४४ अक्षरों से युक्त है, उसी प्रकार तु ४४ वर्षों के अक्षय बल वीर्यों से युक्त हो । अथवा, हे राजन् ! उत्तम शासक सभापते ! प्रजापालक ! तु गायत्री छन्द प्रकाशित अर्थ या अग्नि के समान उत्तम ज्ञानप्रकाशवान् त्रिष्टुप् छन्द प्रकाशित अर्थ के समान, छन्द या ऐश्वर्यवान् के गुणों से युक्त अथवा ब्राह्मबल और क्षात्रबल से युक्त हो । हे ( अश्विना ) राजा प्रजावर्गो ! । ( द्यावापृथिवीभ्याम् ) द्यौ, सूर्य और पृथिवी, उन दोनों के समान राजा और प्रजावर्ग दोनों के हित के लिये (स्वा) तुझ पुरुष को (परिगृह्णामि ) उचित पद के लिये स्वीकार करता हूँ । ( अन्तरिक्षेण उपयच्छामि) सूर्य अन्तरिक्ष से, मेघ द्वारा वर्षण और वायु द्वारा सबका प्राण धारण कराता है उसी प्रकार मैं तुझ योग्य विद्वान् पुरुष से प्रजा पर ज्ञानैश्वर्य के वर्षण के निमित्त ( उप यच्छामि ) तुझे स्वीकार करता हूँ । (२) गृहस्थ पक्ष में - हे (अश्विना) स्त्री और पुरुष ! तुम दोनों गायत्री और त्रिष्टुप् छन्दों के समान २४ या ४४ वर्ष के अक्षत बल वीर्यवान् होवो | अथवा अग्नि और सूर्य या मेघ के समान तेजस्वी, प्रतापी, वीर्यवान् हो । (द्यावापृथिवी स्वा अन्तरिक्षेण उपयामि) जिस प्रकार सूर्य और पृथिवी दोनों के बीच अन्तरिक्ष एक दूसरे के साथ सम्बन्ध कराता है और अन्तरिक्ष के द्वारा ही सूर्य पृथिवी या जल वर्षण करता और अन्न पैदा करता है पृथिवी अन्तरिक्ष द्वारा सूर्य की रश्मियों का ग्रहण करती है उसी प्रकार (अन्तरिक्षेण) अन्तरिक्ष अर्थात् स्नेहमय हृदय द्वारा ही पुरुष और स्त्री परस्पर विवाहित होते हैं । वही उनमें आदान-प्रतिदान का कारक है, उस द्वारा मैं पुरुष स्त्री को और स्त्री पुरुष को पत्नी और पतिरूप से स्वीकार करें । हे (बसवः) पृथिवी आदि प्रजाओं को बसाने वाले पदार्थों के समान यशस्वी, एवं बसने वाले प्रजास्थ पुरुषो ! आप लोग (स्वाहा ) उत्तम दान- प्रतिदान और सत्य वाणी द्वारा (सारघस्य) मधु मक्खी के बने विशुद्ध (मधुनः) मधु के समान मधुर व्यवहार के ( धर्मम् ) तेजोयुक्त पराक्रम से सम्पन्न, राज्यरूप परम लाभ का (पात) पालन करो या उत्तम रस, आनन्द का पान, उपभोग करो और ( वाट् ) उत्तम व्यवहार से ही ( यजत) परस्पर लो, दो, सुसंगति करो। (सूर्यस्य) सूर्य के ( वृष्टिवनये ) सृष्टि प्रदान करने वाले ( रश्मये ) किरणों से पृथिवी, वायु आदि 'वसु' नामक पदार्थ 'मधु' अर्थात् जल और अन्न प्रदान करते हैं उसी प्रकार सूर्य के समान तेजस्वी राजा प्रजा के प्रति ऐश्वर्यादि वर्षण करने वाले रश्मि अर्थात् राज्यप्रबन्ध के कार्य के लिये (वसवः) समस्त प्रजागणो ! ( यजत) तुम कर प्रदान करो, परस्पर संगत रहो । (२) गृहस्थपक्ष में -हे स्त्री पुरुषो ! (सारघस्य मधुनः धर्मं पात) मधुमक्खियों के बनायें मधु के रस, मधुपर्क का पान करो और मधुर गृहस्थ धर्म, यज्ञ वा पालन एवं रसास्वादन करों । अथवा सहस्रों भ्रमरों द्वारा संगृहीत मधु का जिस प्रकार स्त्री पुरुष उपभोग करते हैं उसी प्रकार गतिशील प्राणों के द्वारा सञ्चित मधुर, सुखप्रद ( धर्मम् ) सेचन करने योग्य वीर्य का (पात) पालन करो एवं गृहस्थोचित कार्य में उपयोग करो । ( वाट ) यज्ञाहुति के समान हो (यजत) उस सार पदार्थ का, श्रेष्ठ फल के लिये प्रदान करो और परस्पर संगत होवो । क्यों ? सूर्य के समान ( वृष्टिवनये रश्मये) वृष्टि अर्थात् वीर्यसेचन आदि कार्य तथा उससे उत्पन्न पुत्रादि लाभ के लिये ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्विनौ । निचृदत्यष्टिः । गान्धारः ।

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    पदार्थ

    उसी वेदवाणी से कहते हैं कि १. (गायत्रं छन्दः असि) = तू गायत्र छन्द है, (त्रैष्टुभं छन्दः असि) = तू त्रैष्टुभ छन्द है । यद्यपि वेदवाणी केवल इन दों छन्दों की बनी हुई नहीं है तो भी यहाँ दो ही छन्दों का उल्लेख इसलिए है कि (“एते वाव छन्दसां वीर्यवत्तमे यद् गायत्री त्रिष्टुप् च") [तां० २०. १६] छन्दों में गायत्री और त्रिष्टुप् अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, ये अधिक शक्तिशाली हैं यह वेदवाणी 'गायन्तं त्रायते' अपने गान करनेवाले का त्राण करती है। जो भी वेदवाणी को पढ़ते हैं, वे इसके द्वारा सुरक्षित होते हैं तथा यह वेदवाणी 'त्रि + ष्टुप' तीनों 'काम-क्रोध व लोभ' को रोकनेवाली होकर त्रिविध कष्टों को दूर करती है । २. मैं (त्वा) = तुझे (द्यावापृथिवीभ्यां) = मस्तिष्क व शरीर [मूर्ध्ना द्यौः पृथिवी शरीरम् ] के स्वास्थ्य के लिए परिगृह्णामि ग्रहण करता हूँ। अथवा ("प्राणापानौ वै द्यावापृथिवी") = [श० १४.२.२.३६] मैं अपने प्राण व अपान को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए तेरा ग्रहण करता हूँ। ३. (अन्तरिक्षेण 'मनोऽन्तरिक्षलोकः') = [श० १४.४.३.११] मन के उद्देश्य से उपयच्छामि मैं तुझे अपनाता हूँ [उपयच्छा-स्वीकरण] । वेद का अध्ययन हमें सदा मन को मध्यमार्ग पर चलने का उपदेश देता है। 'अन्तरिक्ष' शब्द का प्रयोग ही 'अन्तरा क्षि' मध्य में निवास का संकेत करता है। 'मेरा मन सब अतियों [Extremes ] से बचकर मध्य में ही चले' इस बुद्धि से मैं वेदवाणी को स्वीकार करता हूँ। ४. (इन्द्राश्विना) = हे जीव ! तू इन प्राणापान के साथ (सारघस्य मधुनः) = मधु-तुल्य सोमरस की (घर्म) = शक्ति को (पात) = सुरक्षित करनेवाला बन। 'इन्द्र' शब्द से सूचित जितेन्द्रियता व प्राणसाधना शरीर में सोमरक्षा के लिए आवश्यक है । यह शरीर में उत्पन्न होनेवाला सोम, भक्ष्य ओषधियों का सारभूत है, इसी बात को स्पस्ट करने के उद्देश्य से यहाँ सोम के लिए 'मधु' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे शहद [सारघ] मधुमक्षिकाओं से पुष्परस के द्वारा ही तो बनाया जाता है, उसी प्रकार शरीर का सोम भी ओषधिरस का ही सार होना चाहिए। शरीर में इसका सुरक्षित होना ही शरीर की सारी उष्णता व शक्ति का आधार है । ५. इस शक्ति के शरीर में सुरक्षित होने पर हमारा शरीर में निवास उत्तम होता है और हम वसु-उत्तम निवासवाले बन जाते हैं। इस सोमपान से शरीर ही नीरोग नहीं होता, मन भी निर्दोष बनता है। इन वसुओं से कहते हैं कि (वसवः) = सोमरक्षा द्वारा वसुत्व सिद्ध करनेवालो ! यजत तुम यज्ञशील बनो। यज्ञशीलता विलासमय जीवन की विरोधी भानवा को व्यक्त करती है। सोमरक्षा के लिए इस यज्ञिय जीवन की अत्यन्त आवश्यकता है। ६. (वाट्) = [वट्= बाँटना] तू अपने धन को बाँटनेवाला बन । संविभाग ही मनुष्य को पवित्र बनाता है ७. (स्वाहा) = तू स्वार्थत्याग करनेवाला बन ताकि तू (सूर्यस्य रश्मये) = सूर्य की रश्मियों को प्राप्त कर सके, अर्थात् तेरी ज्ञान की रश्मियाँ दीप्त हों - तू ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करनेवाला बने तथा (वृष्टिवनये) = अन्त में धर्ममेघ समाधि में आनन्द की वर्षा का अनुभव कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदाध्ययन से मनुष्य का जीवन वासनाओं से बचता है, उसके अन्दर बाँटकर खाने की वृत्ति उत्पन्न होती है, ज्ञान बढ़ता है और आनन्द का अनुभव होता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा शब्दांचा अर्थांबरोबर वाच्यवाचक संबंध असतो. सूर्याचा पृथ्वीबरोबर असतो, पर्जन्याचा किरणांबरोबर असतो, यजमानांचा व ऋत्विजांचा संबंध यज्ञाबरोबर असतो तसा विवाहित स्री, पुरुषांचा संबंध असावा.

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    विषय

    पती-पत्नीचा (स्त्री-पुरुषाचा) पारस्परिक संबंध कसा असावा, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (वधूचा स्वीकार करताना वराची उक्ती) (तो एका अनुभवी विवाहित गृहस्थास म्हणतो) हे (इन्द्र) परम ऐश्‍वर्यवान गृहस्थ, आपण (गायत्रम्) गायत्री छंदाने व्यक्त होणार्‍या (छन्दः) आनंददायक अर्थाप्रमाणे प्रिय अशा पत्नीचे पती (असि) आहात. तसेच (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् छन्दाने प्रकट होणार्‍या (छन्दः) स्वतंत्र अर्थाप्रमाणे प्रशंसनीय पत्नीचे पती (असि) आहात. आपल्याप्रमारे मी (एक नियोजित वर) (त्वा) आपणाकडे पाहून (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य आणि भूमीसारख्या सौंदर्यवती प्रिया स्त्रीला (परि, गृह्णाम्) पूर्णतः स्वीकार करतो. आणि (अन्तरिक्षेण) हातात जल घेऊन ज्या वधूने प्रतिज्ञा केली आहे, तिचा (उप, यच्छामि) माझ्या जवळ आत्मीय म्हणून स्वीकार करीत आहे. (विवाहित गृहस्थ आशीर्वाद देत म्हणतात) हे (अश्‍विना) प्राण-अपानाप्रमाणे कार्य संपन्न करणाऱ्या नवदम्पती, तुम्ही दोघे जसे प्राण-अपान ऐक्याने कार्य करतात, तसे तुम्हीही आचरण ठेवा. हे (वसवः) पृथ्वी आदी वसूंप्रमाणे हे प्रथम स्तराचे विद्वज्जनहो, तुम्ही (स्वाहा) सत्य व्यवहाराद्वारे (मधुनः) सारघस्य) आणि मधमाशांनी निर्माण केलेल्या मधुर गुणयुक्त रसाद्वारे (धर्मम्) सुखदायक यज्ञाची रक्षा करा. तसेच (सूर्य्यस्य) सूर्याच्या (वृष्टिवनये) वृष्टी करणार्‍या (रश्मये) शोधक किरणांकरिता (वाट्) तुम्ही उत्तमप्रकारे (यजत) यज्ञ करा अथवा एकत्र येऊन कार्य करा (यज्ञाने आकाशातील किरणें व जल स्वच्छ होऊन भूमीवर वृष्टी होईल, म्हणून यज्ञ करा) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसा शब्दांचा अर्थाशी वाच्यवाचक संबंध आहे, वा सूर्याशी पृथ्वीचा, किरणांशी पावसाचा, यज्ञाचा यजमानाशी व ऋत्विजांचा सम्बन्ध आहे, तसा सम्बन्ध पती-पत्नीमधे असावयास हवा. ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O strong man, like the twenty-four syllables of the Gayatri metre, observe thou celibacy for twenty-four years ; like forty-four syllables of Trishtup metre, observe thou celibacy for forty-four years. I grasp thee dear wife beautified by the Sun and Earth, and accept thee who takes vow with water in hand. O husband and wife behave mutually like Pran and Apan to accomplish your tasks. O Vasus, protect nicely the sacrifice and the sweet honey prepared by the bees. Work together well and nobly to make suns beams bring rain.

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    Meaning

    Happy bride, you are bright and joyous like the twenty-four syllable verse of the Gayatri metre. Happy groom, you are strong and free like the forty-four syllable Trishtubh metre. For the sake of heaven and earth I accept you both as wedded couple, and I lead you home by the paths of the sky. Like Indra and the Ashvins, promote and advance the yajna fire of the sweets of honey in life. Inmates of the home, perform yajna in the home in honour of the Vasus and rays of the sun which bring showers of rain for the earth. This is the voice of Divinity, follow it in truth of word and deed.

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    Translation

    (O divine speech), you are the Gayatri metre. (1) You are the Tristubh metre. (2) I grasp you with the heaven and earth. (3) I raise you up with the midspace. (4) O resplendent Lord and O twin divines, may you protect our sacrifice, which is as sweet as bee's honey. O young sages, may you offer oblation. Dedicate it to the sun-beam that brings rain. (5)

    Notes

    Addressed to Sarasvati. Indrāśvinä, इंद्राश्विनौ , O resplendent Lord and twin divines. Sāragham, bees' honey. Vasavaḥ, young sages, who have practised austerities upto the age of 24 years. Vrstivanaye, that which brings rain.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স্ত্রীপুরুষয়োঃ কীদৃশঃ সম্বন্ধঃ স্যাদিত্যাহ ॥
    পুনঃ স্ত্রী পুরুষের কেমন সম্বন্ধ হইবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) পরম ঐশ্বর্য্যযুক্ত পুরুষ ! যেমন তুমি (গায়ত্রম্) গায়ত্রী ছন্দে প্রকাশিত (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র আনন্দকারক অর্থের সমান হৃদয় প্রিয় স্ত্রীকে প্রাপ্ত (অসি) আছো । (ত্রৈষ্টুভম্) ত্রিষ্টুপ্ ছন্দে ব্যাখ্যাত (ছন্দঃ) স্বতন্ত্র অর্থমাত্রের সমান প্রশংসিত পত্নীকে প্রাপ্ত (অসি) আছো, সেইরূপ আমি (ত্বা) তোমাকে দেখিয়া (দ্যাবাপৃথিবীভ্যাম্) সূর্য্য ভূমি হইতে অতি শোভায়মান প্রিয়া স্ত্রীকে (পরি, গৃহ্নামি) সকল দিক দিয়া স্বীকার করি এবং (অন্তরিক্ষেণ) হস্তে জল গ্রহণ করিয়া প্রতিজ্ঞা করানো (উপ, য়চ্ছামি) স্ত্রীত্বের সহ গ্রহণ করি । হে (অশ্বিনা) প্রাণ-অপানের তুল্য কার্য্যসাধক স্ত্রী-পুরুষগণ ! তোমরা উভয়েই সেই মত আচরণ কর । হে (বসবঃ) পৃথিবী আদি বসুর তুল্য প্রথম শ্রেণির বিদ্বান্গণ ! তোমরা (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (মধুনঃ সারঘস্য) মৌমাছীদের নির্মিত মধুরাদি গুণযুক্ত মধু এবং (ঘর্মম্) সুখ দিবার যজ্ঞের (পাত) রক্ষা কর । (সূর্য়্যস্ব) সূর্য্যের (বৃষ্টিবনয়ে) বর্ষার বিভাগকারী (রশ্ময়ে) সংশোধক কিরণের জন্য (বাট্) উত্তম প্রকার (য়জত) সঙ্গত ভাবে গমন কর ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন শব্দের অর্থ সহ বাচ্য-বাচক সম্পর্ক, সূর্য্য সহ পৃথিবীর, কিরণ সহ বর্ষার, যজ্ঞ সহ যজমান এবং ঋত্বিজদের সম্পর্ক সেইরূপই বিবাহিত স্ত্রী পুরুষের সম্পর্ক হইবে ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    গা॒য়॒ত্রং ছন্দো॑ऽসি॒ ত্রৈষ্টু॑ভং॒ ছন্দো॑ऽসি॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীভ্যাং॑ ত্বা॒ পরি॑ গৃহ্ণাম্য॒ন্তরি॑ক্ষে॒ণোপ॑ য়চ্ছামি । ইন্দ্রা॑শ্বিনা॒ মধু॑নঃ সার॒ঘস্য॑ ঘর্মং পা॑ত॒ বস॑বো॒ য়জ॑ত॒ বাট্ । স্বাহা॒ সূর্য়্য॑স্য র॒শ্ময়ে॑ বৃষ্টি॒বন॑য়ে ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    গায়ত্রমিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । নিচৃদত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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