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यजुर्वेद अध्याय - 39

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  • यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - वागादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    वा॒चे स्वाहा॑ प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑ प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑।चक्षु॑षे॒ स्वाहा॒ चक्षु॑षे॒ स्वाहा॒ श्रोत्रा॑य॒ स्वाहा॒ श्रोत्रा॑य॒ स्वाहा॑॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाचे। स्वाहा॑। प्रा॒णाय॑। स्वाहा॑। प्रा॒णाय॑। स्वाहा॑ ॥ चक्षु॑षे। स्वाहा॑। चक्षु॑षे। स्वाहा॑। श्रोत्रा॑य। स्वाहा॑। श्रोत्रा॑य। स्वाहा॑ ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचे स्वाहा प्राणाय स्वाहा प्राणाय स्वाहा चक्षुषे स्वाहा चक्षुषे स्वाहा श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाचे। स्वाहा। प्राणाय। स्वाहा। प्राणाय। स्वाहा॥ चक्षुषे। स्वाहा। चक्षुषे। स्वाहा। श्रोत्राय। स्वाहा। श्रोत्राय। स्वाहा॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 39; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. (वाचे स्वाहा) = मैं इस वाणी के लिए शुभ शब्द कहता हूँ। इसी के द्वारा जीवनभर मेरा सारा कार्य चला। यही मेरे विचारों का वाहन बनी। इसी के द्वारा मैंने अपनी इच्छाओं को औरों पर व्यक्त किया। इस वाणी से आज मैं विदा लेता हूँ। २. (प्राणाय स्वाहा) = वाणी के ऊपर स्थित इस घ्राणेन्द्रिय के लिए भी मैं धन्यवाद करता हूँ। इसके द्वारा मैंने जीवन में आत्मीयता का अनुभव किया। कौन मेरे सगे-सम्बन्धी हैं, इनके पहचानने में इसने मेरा साथ दिया। (घ्राणाय स्वाहा) = इस घ्राणेन्द्रिय के दूसरे छिद्र के लिए भी मैं धन्यवाद करता हूँ, परन्तु आज इन दोनों से ही विदा लेने की तैयारी में हूँ। [३] (चक्षुषे स्वाहा) = , प्राण से ऊपर स्थित इस चक्षु के लिए भी धन्यवाद है। इसी ने मुझे सारे जीवन में वस्तुओं का दर्शन कराया। इसके बिना मेरा संसार शून्य-सा ही रहता। ये ही मुझे 'अगला मार्ग साफ़ है या नहीं' इसका ज्ञान देती थीं। 'स्थल है या जल है' यह इन्हीं से मैं देख पाता था। आज मुझे इनसे विदाई लेनी है। (चक्षुषे स्वाहा) = इस बाई आँख के लिए भी धन्यवाद । [४] (श्रोत्राय स्वाहा, श्रोत्राय स्वाहा) = मैं इन दोनों श्रोत्रों के लिए भी धन्यवाद करता हूँ। इनसे सुनकर ही मैंने सारा ज्ञान प्राप्त किया। इन्हीं से मेरे विचार औरों ने सुने, उनके विचार मैंने सुने । परस्पर विचार-विनिमय में इनका स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इनके अभाव में मेरा यह संसार कितना विचित्र - सा होता ! इनका भी धन्यवाद करता हुआ आज इनसे भी विदा लेता हूँ। सचमुच अब तो हे श्रोत्रो ! तुमसे विदा लेकर मुझे ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर ही चले जाना है। आवश्यक हुआ तो फिर मिलेंगे ही, परन्तु आज तो विदाई दो ना? का

    भावार्थ - भावार्थ- आज अन्तिम दिन मैं इन सप्तर्षियों से, जिन्होंने मुझे सदा इस संसार ज्ञान दिया, विदा लेने लगा हूँ। इनका धन्यवाद तो मैं करता ही हूँ।

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