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यजुर्वेद अध्याय - 39

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  • यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - श्रीर्देवता छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    मन॑सः॒ काम॒माकू॑तिं वा॒चः स॒त्यम॑शीय।प॒शू॒ना रू॒पमन्न॑स्य॒ रसो॒ यशः॒ श्रीः श्र॑यतां॒ मयि॒ स्वाहा॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन॑सः। काम॑म्। आकू॑ति॒मित्याऽकू॑तिम्। वाचः। स॒त्यम्। अ॒शी॒य॒ ॥ प॒शू॒नाम्। रू॒पम्। अन्न॑स्य। रसः॑। यशः॑। श्रीः। श्र॒य॒ता॒म्। मयि॑। स्वाहा॑ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनसः काममाकूतिञ्वाचः सत्यमशीय । पशूनाँ रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयताम्मयि स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनसः। कामम्। आकूतिमित्याऽकूतिम्। वाचः। सत्यम्। अशीय॥ पशूनाम्। रूपम्। अन्नस्य। रसः। यशः। श्रीः। श्रयताम्। मयि। स्वाहा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 39; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    जाती हुई आत्मा यह चाहती है कि वह मुक्त हो जाए, अतिदीर्घ काल तक अगला जन्म न लेना पड़े, वह परमेश्वर के साथ विचरनेवाली बने, परन्तु यदि जन्म लेना ही पड़े तो इसकी प्रार्थना निम्न शब्दों में होती है- १. मैं (मनसा) = मन से (कामम्) = पर्याप्त (आकूतिम्) = सङ्कल्प को अशीय प्राप्त करूँ। मेरा मन उत्तमोत्तम कार्यों के सङ्कल्पवाला हो। यह तो ठीक है कि मैं काममय न हो जाऊँ, परन्तु जड़ वस्तुओं की भाँति अकाम भी न हो जाऊँ । मेरा मन सदा शुभ सङ्कल्पों से भरा रहे। २. मैं (वाचः) = वाणी की (सत्यम्) = यथार्थता को (अशीय) = प्राप्त करूँ। मेरी वाणी यथार्थ हो। इतना ही नहीं कि मैं अर्थ के अनुसार बोलनेवाला होऊँ, अपितु मेरी वाणी के अनुसार अर्थ हो जाए ३. (पशूनाम् रूपम्) = मैं पशुओं के रूप को प्राप्त करूँ। आचार्य एक जगह 'रूप' शब्द पर लिखते हैं कि 'विषयासक्ति, कुपथ्य और अधर्माचरण को छोड़कर अपने स्वरूप को अच्छा रखना। पशुओं का जीवन सादा है। उनके खानपान में जटिलता नहीं । परिणामतः उनका जीवन स्वस्थ बना रहता है। हम भी उनकी भाँति विषयासक्ति आदि से बचकर स्वस्थ बनने का प्रयत्न करें। 'रूपम् रोचते:' निरुक्त [२.३] के इन शब्दों के अनुसार मैं स्वास्थ्य की दीप्तिवाला बनूँ। 'सादा जीवन' यह मेरा उद्देश्य - वाक्य बने और मैं स्वास्थ्य व दीर्घ जीवन का लाभ करूँ। " के ५. (अन्नस्य रसः) = इस स्वास्थ्य के लिए ही मैं अन्न के रस का सेवन करूँ। व्यर्थ अभक्ष्य मांस आदि के झगड़े में न पड़ जाऊँ। साथ ही अन्न को खूब चबाकर खाऊँ। उसको रसरूप में अन्दर ले जाऊँ। इस सात्त्विक भोजन के परिणामस्वरूप मेरी वृत्ति भी सात्त्विक बनी रहे । ६. (मयि) = मुझमें (यशः) = यश और (श्री:) = शोभा (श्रयताम्) = आश्रय करें। मेरा प्रत्येक कार्य यशस्वी और श्रीसम्पन्न हो। मैं किसी भी कार्य को अनाड़ीपन से न करूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- मेरा जीवन उत्तम संकल्पोंवाला, सत्यमय, स्वस्थ, सात्त्विक अन्न का सेवन करनेवाला तथा यश और श्री से युक्त हो ।

    - सूचना-'श्री' का अर्थ धन भी होता है। मैं अपने जीवन में उचित व आवश्यक धन को प्राप्त करनेवाला बनूँ। धन का अभाव मेरी परेशानी का कारण न बने।

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