यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 1
स्वाहा॑ प्रा॒णेभ्यः॒ साधि॑पतिकेभ्यः। पृ॒थि॒व्यै स्वाहा॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ऽन्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ वा॒यवे॒ स्वाहा॑। दि॒वे स्वाहा॒। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठस्वाहा॑। प्रा॒णेभ्यः॑। साधि॑पतिकेभ्य॒ इति॒ साधि॑ऽपतिकेभ्यः ॥ पृ॒थि॒व्यै। स्वाहा॑। अग्नये॑। स्वाहा॑। अ॒न्तरि॑क्षाय। स्वाहा॑। वायवे॑। स्वाहा॑। दि॒वे। स्वाहा॑। सूर्य्या॑य। स्वाहा॑ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाहाप्राणेभ्यः साधिपतिकेभ्यः पृथिव्यै स्वाहेग्नये स्वाहेन्तरिक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा । दिवे स्वाहा । सूर्याय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वाहा। प्राणेभ्यः। साधिपतिकेभ्य इति साधिऽपतिकेभ्यः॥ पृथिव्यै। स्वाहा। अग्नये। स्वाहा। अन्तरिक्षाय। स्वाहा। वायवे। स्वाहा। दिवे। स्वाहा। सूर्य्याय। स्वाहा॥१॥
विषय - धन्यवाद व विदाई
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में अपने को प्रभु के प्रति अर्पण करके व्यक्ति इस संसार से चलने की पूरी तैयारी कर चुका है। इस विदाई के समय वह जिस शरीर व लोक में रहा, जिन-जिनके सम्पर्क में आया, उनसे वह विदा लेता है। उनका धन्यवाद करता है (सु+आह) = उनके लिए उत्तम शब्द बोलता है तथा 'स्व + आह' अपना परिचय देता हुआ विदा लेता है। जिस-जिस वस्तु के साथ उसने ('स्व' पना) = ममता जोड़ा था, उन्हें आज यहाँ छोड़ता है [हा छोड़ना] । (प्राण) = २. सबसे प्रथम (प्राणेभ्यः) = प्राणों के लिए (स्वाहा) = धन्यवाद करता है। शरीर में सोलह कलाओं में सबसे प्रथम इन्हीं का निर्माण हुआ था ('स प्राणमसृजत्) - तै० । इन प्राणों से वह कहता है कि भाई ! जब सब सो जाते थे तब भी तुम जागकर पहरा दिया करते थे, तुमने कभी थकने का नाम ही नहीं लिया। 'साधिपतिकेभ्यः 'तुम्हारा जो अधिपति मन है उस मनसहित तुम्हारे लिए मैं धन्यवाद करता हूँ। [मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः - श० १४।३।२।३] । इस मन के बिना तो कोई कदम कभी रक्खा ही नहीं गया। हे प्राणो ! अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ। ३. (पृथिव्यै स्वाहा) = इस पृथिवी के मुख्य देवता के लिए भी मैं धन्यवाद करता हूँ। हे पृथिवि ! तूने मुझे खाने के लिए अन्न दिया, पहनने के लिए कपड़ा दिया। मातृतुल्य पालन करनेवाली तुझे मैं धन्यवाद न दूँ तो और किसे दूँ। तेरी इस मुख्य देवता अग्नि ने मेरे जीवन में कितना बड़ा भाग लिया! उस कृपा को मैं कभी भूल सकता हूँ? मुझे अब छुट्टी दो, आज मैं आपसे विदाई लेता हूँ। ४. (अन्तरिक्षाय स्वाहा, वायवे स्वाहा) = भाई अन्तरिक्ष [ ' भ्रातान्तरिक्षम्' अथर्व ० ] ! तेरा भी मैं धन्यवाद करता हूँ और तेरे इस मुख्य देवता वायु के लिए भी मैं शुभ शब्द कहता हूँ । तेरे अन्दर ही मेरी सब क्रियाएँ होती रहीं । 'आना-जाना, भागना-दौड़ना' सब तुझमें ही होता रहा। तेरी वायु यदि एक मिनिट रुकती थी तो मेरा दम ही घुट जाता था, अत: तुम दोनों का भी धन्यवाद करता हुआ मैं आज तुमसे विदाई लेता हूँ। ५. (दिवे स्वाहा, सूर्याय स्वाहा) = इस पितृस्थानीय द्युलोक के लिए ['द्यौष्पिता' - अथर्व०] तथा उसके मुख्य देवता सूर्य के लिए मैं धन्यवाद करता हूँ 'इस द्युलोक ने वृष्टि की व्यवस्था करके किस प्रकार पृथिवी में अन्न उत्पादन की व्यवस्था की' क्या मैं इसे कभी भूल सकता हूँ? सूर्य तो सब प्रजाओं का प्राण ही है, इसने सब प्राणदायी तत्त्वों को अपनी किरणों से उन अन्नों व ओषधियों में स्थापित किया। इस सूर्य के सम्र्पक में ही मैं उत्साहमय जीवन को बिता पाया। आज हे द्युलोक व सूर्य ! मैं आपसे विदाई लेता हूँ। फिर भी किसी शरीर में आऊँगा तो मिलना होगा ही, परन्तु आज तो मुझे अब छुट्टी दो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम अपने अन्तिम समय [on death bed ] मनसहित प्राणों, अग्निसहित पृथिवी, वायुसहित अन्तरिक्ष तथा सूर्यसहित द्युलोक का धन्यवाद करते हुए इनसे विदा लें।
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