यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - आर्ची उष्णिक्,साम्नी त्रिष्टुप्,स्वराट् प्राजापत्या जगती,
स्वरः - ऋषभ, मध्यमः
2
या ते॒ धामा॑न्यु॒श्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गाःऽअ॒यासः॑। अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ विष्णोः॑ प॒र॒मं प॒दमव॑भारि॒ भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह॥३॥
स्वर सहित पद पाठया। ते॒। धामा॑नि। उ॒श्मसि॑। गम॑ध्यै। यत्र॑। गावः॑। भूरि॑शृङ्गा॒ इति॒ भूरि॑शृङ्गाः। अ॒यासः॑। अत्र॑। अह॑। तत्। उ॒रु॒गा॒यस्येत्यु॑रुऽगा॒यस्य॑। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। अव॑। भा॒रि॒। भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒जाम्। दृ॒ꣳह॒ ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते धामान्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः । अत्राह तदुरुगायस्य विष्णोः परमम्पदमव भारि भूरि । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि रायस्पोषवनि पर्यूहामि । ब्रह्म दृँह क्षत्रन्दृँहायुर्दृँह प्रजान्दृँह ॥
स्वर रहित पद पाठ
या। ते। धामानि। उश्मसि। गमध्यै। यत्र। गावः। भूरिशृङ्गा इति भूरिशृङ्गाः। अयासः। अत्र। अह। तत्। उरुगायस्येत्युरुऽगायस्य। विष्णोः। परमम्। पदम्। अव। भारि। भूरि। ब्रह्मवनीति ब्रह्मऽवनि। त्वा। क्षत्रवनीति क्षत्रऽवनि। रायस्पोषवनीति रायस्पोषऽवनि। परि। ऊहामि। ब्रह्म। दृꣳह। क्षत्रम्। दृꣳह। आयुः। दृꣳह। प्रजामिति प्रजाम्। दृꣳह॥३॥
विषय - प्रभु के परमपद का दीपन
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में बुराइयों के शकलीकरण—नष्ट करने का उल्लेख है। उन बुराइयों का विदारण करके ‘दीर्घतमा’ = तमोगुण का विदारण करनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि कहता है कि हे प्रभो! ( या ते धामानि ) = जो आपके तेज हैं, हम उन्हें ( गमध्यै ) = प्राप्त करना ( उश्मसि ) = चाहते हैं, ( यत्र ) = जिन तेजों में ( भूरिशृङ्गाः ) = [ भूरीणि शृङ्गाणि प्रकशा यासु ताः—द०, शृङ्गााणि इति ज्वलतोनामसु—नि० १।१७ ] अत्यन्त देदीप्यमान ( गावः ) = रश्यिमाँ ( अयासः ) = प्राप्त हैं, अर्थात् हम आपके उन तेजों को प्राप्त करना चाहते हैं जो तेज ज्ञान की रश्मियों के साथ निवास करते हैं।
२. ( अत्र ) = जहाँ ज्ञान और तेज का समन्वय होता है उस स्थान में, उस जीव में ( अह ) = निश्चय से ( उरुगायस्य ) = विशाल गतिवाले व विशाल यशोगानवाले ( विष्णोः ) = व्यापक प्रभु का ( तत् परमं पदम् ) = वह उत्कृष्ट पद ( भूरि ) = खूब ( अवभाति ) = चमकता है। प्रभु का दर्शन ज्ञान और तेज का समन्वय होने पर ही होता है।
३. प्रभु दीर्घतमा से कहते हैं कि ( ब्रह्मवनि ) = ज्ञान का विजय करनेवाले ( त्वा ) = तुझे, ( क्षत्रवनि त्वा ) = बल का विजय करनेवाले तुझे और ( रायस्पोषवनि त्वा ) = धन के पोषण के विजेता तुझे ( पर्यूहामि ) = मैं अपने समीप प्राप्त कराता हूँ।
४. तू अपने जीवन में ( ब्रह्म दृंह ) = ज्ञान को दृढ़ कर, ( क्षत्रं दृंह ) = बल को बढ़ा,( आयुः दृंह ) = तू अपने जीवन को दृढ़ बना, ( प्रजां दृंह ) = तू अपने सन्तानों को भी दृढ़ बना। तेरा ज्ञान, बल तो दृढ़ हो ही, तेरा सारा जीवन भी दृढ़ हो। तू अपने मार्ग से विचलित होनेवाला न हो। तेरी सन्तानें भी दृढ़ता से जीवन-पथ का आक्रमण करनेवाली हों। सन्तानों के कारण तेरा जीवन उन्नति-पथ पर चलने से विहत न हो जाए।
भावार्थ -
भावार्थ — हमारे जीवन प्रभु के तेजों व ज्ञानों को अपनाकर प्रभु के परम पद को दीप्त करनेवाले हों। हम ज्ञान और बल के साथ धन भी प्राप्त करें। अपने ज्ञान, बल, जीवन व सन्तानों को दृढ़ बनाएँ।
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