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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    विष्णोः॒ कर्म्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑ कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः कर्म्माणि। पश्यत। यतः। व्रतानि। पस्पशे। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -

    १. अपने जीवन के मार्ग को निश्चित करने के लिए गत मन्त्र के ‘आयुर्दृंह’ आदेश के अनुसार अपने जीवन को दृढ़ बनाने के लिए समझदार व्यक्ति प्रभु के कर्मों का विचार करता है और उन्हीं कर्मों को स्वयं करने का व्रत लेता है। यही व्यक्ति मेधातिथि = [ मेधया अतति ] समझदारी से चलनेवाला है। यह कहता है कि २. ( विष्णोः ) = उस व्यापक प्रभु के ( कर्माणि ) = कर्मों को ( पश्यत ) = देखो, ( यतः ) = जिन कर्मों के देखने से ही यह द्रष्टा ( व्रतानि ) = अपने जीवन-नियमों को ( पस्पशे ) = [ बध्नाति ] अपने में बाँधता है, अर्थात् अपने जीवन को भी उन्हीं कर्मों में लगाने का ध्यान करता है। 

    ३. यह ( युज्यः ) = [ युनक्ति सदाचारेण ] प्रभु के कर्मों का ध्यान करके अपने को उन कर्मों से जोड़नेवाला सदाचारी ही ( इन्द्रस्य ) = उस सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु का ( सखा ) = मित्र बनता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु के कर्मों को देखें। उन्हीं व्रतों से अपने को बाँधें और व्रतों से अपने को जोड़नेवाले हम प्रभु के मित्र बनें।

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