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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 101
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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ज꣣ज्ञानः꣢ स꣣प्त꣢ मा꣣तृ꣡भि꣢र्मे꣣धा꣡माशा꣢꣯सत श्रि꣣ये꣢ । अ꣣यं꣢ ध्रु꣣वो꣡ र꣢यी꣣णां꣡ चि꣢केत꣣दा꣢ ॥१०१॥
स्वर सहित पद पाठज꣣ज्ञानः꣢ । स꣣प्त꣢ । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । मे꣣धा꣢म् । आ । अ꣣शासत । श्रिये꣢ । अ꣣य꣢म् । ध्रु꣣वः꣢ । र꣣यीणा꣢म् । चि꣣केतत् । आ꣢ ॥१०१॥
स्वर रहित मन्त्र
जज्ञानः सप्त मातृभिर्मेधामाशासत श्रिये । अयं ध्रुवो रयीणां चिकेतदा ॥१०१॥
स्वर रहित पद पाठ
जज्ञानः । सप्त । मातृभिः । मेधाम् । आ । अशासत । श्रिये । अयम् । ध्रुवः । रयीणाम् । चिकेतत् । आ ॥१०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 101
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
योगदर्शन में योग-मार्ग आठ मञ्जिलोंवाला है। आठवीं मञ्जिल समाधि है [जिसमें प्रभु का साक्षात्कार हो जाना है।] उससे पहले सात मञ्जिलें हैं, जिन्हें हम साधना का नाम दे सकते हैं। ये सातों मानव जीवन को स्वस्थ, सबल, सुन्दर व सुप्रज्ञ बनाकर बड़ा उत्तम बना देतीं हैं। इस निर्माण के कारण इन्हें मन्त्र में 'सप्त मातरः' कहा है। इन सात मंजिलों को पार कर मनुष्य प्रभु का साक्षात् कर पाता है । मन्त्र में कहा है कि 'सप्त मातृभिः ' योग की इन सात [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान] मंजिलों द्वारा जज्ञान:- -वह प्रभु तुम्हारे सामने प्रादुर्भूत हुए हैं [जनी प्रादुर्भावे]।
‘प्रभु से जीव क्या याचना करे?' याचना करने की सहस्रों वस्तुएँ हो सकती हैं– ‘प्रजा, पशु, आयु, प्राण, द्रविण, कीर्ति' एक-एक वस्तु मनुष्य के लिए आकर्षण रखती है। वेद कहता है कि श्(रिये)= अपने जीवन को सम्पन्न बनाने के लिए (मेधाम्)= मेधा बुद्धि को (आशासत)=माँगो। श्री शब्द 'धर्म, अर्थ, काम' तीनों पुरुषार्थों को एक शब्द से कहने के लिए प्रयुक्त होता है। यदि मनुष्य यह चाहता हो कि उसके जीवन में धर्म, अर्थ व काम तीनों का सुन्दर समन्वय हो तो वह मेधा की याचना करे। मेधा उसे कहीं भी आसक्त न होने देती हुई, धर्म, अर्थ, काम इन सभी पुरुषार्थों की श्री से सम्पन्न कर देती है।
‘प्रभु का दर्शन होने पर मेधा ही माँगनी है' ऐसा हम निश्चय करें कहीं ऐसा न हो कि उस विस्मय में हमें कुछ सूझे ही नहीं या हम कुछ ग़लत वस्तु माँग बैठें। अयम् =यह प्रभु तो (रयीणाम्) =सब प्रकार की सम्पत्तियों के (ध्रुवः) = अवधिभूत स्थान हैं – पवित्र पात्र हैं। ऐसा ही वह प्रभु (आ)=सर्वत्र (चिकेतत्)=जाना गया है। उन सम्पत्तियों में से हम 'धर्म में स्थिर बुद्धि' को ही चाहें। हमारी याचना सात्त्विक सम्पत्ति के लिए हों। यह सर्वोत्तम सात्त्विक सम्पत्ति ही ‘मेधा' है। इसके होने पर कुछ भी अप्राप्य न रहेगा। इस प्रकार हम प्राप्त करनेवालों में श्रेष्ठ, इस मन्त्र के ऋषि ‘आप्त्य' होंगे और संसार - सागर को तैरनेवालों में उत्तम होकर तीर्णतम=त्रित कहलाएँगे।
भावार्थ -
भावार्थ-हम योग की सात भूमिकाओं से उस प्रभु का दर्शन करें और सदा मेधा की कामना करें।
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