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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1074
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
तो꣣शा꣡सा꣢ रथ꣣या꣡वा꣢ना वृत्र꣣ह꣡णाप꣢꣯राजिता । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ त꣡स्य꣢ बोधतम् ॥१०७४॥
स्वर सहित पद पाठतोशा꣡सा꣢ । र꣣थया꣡वा꣢ना । र꣣थ । या꣡वा꣢꣯ना । वृ꣣त्रह꣡णा꣢ । वृ꣣त्र । ह꣡ना꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯राजिता । अ । प꣣राजिता । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । बो꣣धतम् ॥१०७४॥
स्वर रहित मन्त्र
तोशासा रथयावाना वृत्रहणापराजिता । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥१०७४॥
स्वर रहित पद पाठ
तोशासा । रथयावाना । रथ । यावाना । वृत्रहणा । वृत्र । हना । अपराजिता । अ । पराजिता । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । तस्य । बोधतम् ॥१०७४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1074
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - सदा अपराजित
पदार्थ -
हे प्राणापानो! आप १. (तोशासा) = शरीर में रोगों का कारण बननेवाले सब कृमियों का संहार करनेवाले हो [तोश= हिंसा] । प्राणापान की साधना का पहला परिणाम' आरोग्य' है । २. नीरोगता प्राप्त कराके (रथयावाना) = आप इस शरीररूप रथ को जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए मार्ग पर ले-चलनेवाले हो । जीवन-यज्ञ के ऋत्विज हो । जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए प्रभु ने यह शरीररूप रथ दिया है। इसमें ये प्राणापान किसी प्रकार की कमी नहीं आने देते । ३. (वृत्रहणा) = मन में उत्पन्न हो जानेवाली वासनाएँ ही ‘वृत्र’ हैं। ये वासनाएँ मनुष्य के ज्ञान पर पर्दा-सा डाल देती है, तभी तो ‘वृत्र' हैं । ज्ञान के आवृत हो जाने पर अन्धकार में रथ यात्रा मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है या कहीं टकराकर टूट-फूट जाता है। ये प्राणापान इन वृत्रों का हनन कर देते हैं और यात्रा मार्ग को प्रकाशमय रखते हैं। ४. (अपराजिता) = ये प्राणापान इन विघ्नों से कभी पराजित नहीं होते। असुरों ने इन्द्रियों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया था, परन्तु प्राणापान से टकराकर वे स्वयं चूर्ण हो गये थे। ये इन्द्राग्नी पराजित होनेवाले नहीं । ('इन्द्राग्नी देवानामोजस्वितमौ') – शत० १३.१.२.६ ये प्राणापान सर्वाधिक ओजस्वी हैं—ये सब विघ्नों को जीतनेवाले, सदा अपराजित हैं । ५. (इन्द्राग्री) = हे प्राणापानो ! आप हमारी यात्रा को निर्विघ्न पूर्ण करके हमें (तस्य) = उस प्रभु का (बोधतम्) = ज्ञान प्राप्त कराओ।
भावार्थ -
प्राणापान शरीर को नीरोग कर, शरीररूप रथ को मार्ग पर ले-चलते हैं, मार्ग में आनेवाले विघ्नों को नष्ट करते हैं। सदा अपराजित होते हुए प्रभु को प्राप्त कराते हैं।
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