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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1081
ऋषिः - अमहीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣣त꣢मु꣣ त्यं꣢꣫ दश꣣ क्षि꣡पो꣢ मृ꣣ज꣢न्ति꣣ सि꣡न्धु꣢मातरम् । स꣡मा꣢दि꣣त्ये꣡भि꣢रख्यत ॥१०८१॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣त꣢म् । उ꣣ । त्य꣢म् । द꣡श꣢꣯ । क्षि꣡पः꣢꣯ । मृ꣣ज꣡न्ति꣢ । सि꣡न्धु꣢꣯मातरम् । सि꣡न्धु꣢꣯ । मा꣣तरम् । स꣢म् । आ꣣दित्ये꣡भिः꣢ । आ꣣ । दित्ये꣡भिः꣢ । अ꣡ख्यत ॥१०८१॥


स्वर रहित मन्त्र

एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम् । समादित्येभिरख्यत ॥१०८१॥


स्वर रहित पद पाठ

एतम् । उ । त्यम् । दश । क्षिपः । मृजन्ति । सिन्धुमातरम् । सिन्धु । मातरम् । सम् । आदित्येभिः । आ । दित्येभिः । अख्यत ॥१०८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1081
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

(एतम्) = इस (उ) = निश्चय से (त्यम्) = उस (सिन्धुमातरम्) = सोमकणों के निर्माण करनेवाले को (दश) = दस (क्षिपः) = आयुधरूप इन्द्रयाँ [ क्षिप्= = weapon] जिनसे कि सब प्रकार का मल परे फेंक दिया गया है [क्षिप् to throw] (मृजन्ति) = शुद्ध कर डालती हैं और तब यह (आदित्येभिः) = आदित्यों के साथ (सम् अख्यत) = गिना जाता है। सूर्य जैसे देदीप्यमान है, यह भी उसी प्रकार देदीप्यमान होता है।

मन्त्रार्थ में निम्न बातें स्पष्ट हैं – १. सोमकण प्रवाह के स्वभाववाले हैं [स्यन्दन्ते] तभी तो वे सिन्धु कहलाये हैं। वे नीचे की ओर प्रवाहित न होकर अथवा अपव्ययित न होकर शरीर में ही व्याप्त होकर हमारा निर्माण करते हैं तो हम 'सिन्धुमाता' बनते हैं । २. इन्द्रियाँ ‘क्षिप्' हैं—ये जीवनसंग्राम में सफलता के लिए आयुधरूप में दी गयी हैं। ये मल को परे फेंककर चमक उठी हैं । ३. इस प्रकार सिन्धुमाता बनकर इन्द्रियरूप आयुधों को सचमुच ‘क्षिप्’ बनाएँगे तो हम आदित्यों की भाँति चमक उठेंगे। कर्मेन्द्रियाँ क्रिया के द्वारा हमारे जीवन को दीप्त बनाती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान की दीप्ति देती हैं ।

अपने जीवन को ऐसा बनानेवाला व्यक्ति ‘अमहीयु'=पार्थिव भोगों की कामना करनेवाला नहीं है। यह पार्थिव भोगों से ऊपर उठने के कारण ही 'आङ्गिरस' है।

भावार्थ -

हम सोमकणों को जीवन निर्माण में लगाएँ, इन्द्रियों को मल के दूरीकरण से क्षिप् बनाएँ और आदित्यों के समान दीप्तिवाले हों ।
 

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