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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1201
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
प्र꣢꣫ वाच꣣मि꣡न्दु꣢रिष्यति समु꣣द्र꣡स्याधि꣢꣯ वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣢न्व꣣न्को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥१२०१॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣣ष्यति । समुद्र꣡स्य꣢ । स꣣म् । उद्र꣡स्य꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣡न्व꣢꣯न् । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥१२०१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन्कोशं मधुश्चुतम् ॥१२०१॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । वाचम् । इन्दुः । इष्यति । समुद्रस्य । सम् । उद्रस्य । अधि । विष्टपि । जिन्वन् । कोशम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् ॥१२०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1201
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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विषय - हृदय में प्रकाश का दर्शन
पदार्थ -
जब सौम्य व पवित्र व्यक्ति का प्रभु आलिंगन करते हैं तब वे (इन्दुः) = प्रभु (समुद्रस्य) = हृदय के [समुद्र: अन्तरिक्षनाम – नि० १९.३; ; मनो वै समुद्रः – श० ७.५.२.५२] (अधिविष्टपि) = स्थान में निवास करते हुए (वाचम्) = वेदवाणी को (प्र इष्यति) = प्रकर्षेण प्रेरित करते हैं। प्रभु हम सबके हृदय में सदा वेदज्ञान का प्रकाश कर रहे हैं, क्योंकि प्रभु तो हैं ही ज्ञान प्रकाशमय, परन्तु हम उस ज्ञान के प्रकाश को तभी देख पाते हैं जब हम सौम्यता व पवित्रता को धारण करते हैं ।
जब प्रभु इस प्रकार ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराते हैं तब वे हमारे (मधुश्चुतम्) = माधुर्य को प्रवाहित करनेवाले (कोशम्) = आनन्दमयकोश को (जिन्वन्) = प्रीणित करते हैं, अर्थात् ज्ञान के प्रकाश को देखने पर हम एक विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं । आनन्द तो है ही प्रकाश में । अन्धकार में भय है । ज्ञान हमें उस एकत्व व अद्वैत का अनुभव कराता है जहाँ भय का अभाव है।
भावार्थ -
हम ज्ञान के प्रकाश में मानव की एकता को देखकर शोक-मोह से ऊपर उठ जाएँ।
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