Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 121
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣫द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत् । च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
स्वर सहित पद पाठय꣣ज्ञः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣वर्धयत् । य꣢त् । भू꣡मि꣢म् । व्य꣡व꣢꣯र्तयत् । वि꣣ । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । च꣣क्राणः꣢ । ओपश꣢म् । ओ꣣प । श꣢म् । दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि ॥१२१॥
स्वर रहित पद पाठ
यज्ञः । इन्द्रम् । अवर्धयत् । यत् । भूमिम् । व्यवर्तयत् । वि । अवर्तयत् । चक्राणः । ओपशम् । ओप । शम् । दिवि ॥१२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 121
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
Acknowledgment
विषय - मस्तिष्क का आभूषण
पदार्थ -
इस मन्त्र के ऋषि 'गोषूक्ती' और 'अश्वसूक्ती' हैं। गौवों से-ज्ञानेन्द्रियों से उत्तम कथन करनेवाला गोषूक्ती है और अश्वों-कर्मेन्द्रियों से उत्तम कथन करनेवाला अश्वसूक्ती है, अर्थात् जिनकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही ठीक मार्ग पर चल रही हैं ऐसे ये ऋषि हैं। इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के ठीक चलने का रहस्य इस बात में है कि रथी ‘इन्द्र’ शक्तिशाली है। वह निर्बल होता तो ये घोड़े मार्ग से विचलित हो जाते, परन्तु यहाँ तो (यज्ञः) = यज्ञ की भावना ने (इन्द्रम्) आत्मा को (अवर्धयत्) बढ़ाया है। यज्ञ की भावना स्थूलरूप में त्याग की भावना है। जब मनुष्य इस भावना को अपने अन्दर जाग्रत् करता है तो उसकी आत्मिक शक्ति का विकास होता है। इसके विपरीत जब वह त्याग की भावना से दूर होकर भोगों को बढ़ाने में जुट जाता है तो वह इन्द्रियों का दास बन जाता है और उसकी आत्मा निर्बल हो जाती है। यज्ञ 'इन्द्र' को बढ़ाता है तो यज्ञ का अभाव 'इन्द्रियों' को। इसलिए आत्मिक शक्ति का विकास चाहनेवाला अपने अन्दर यज्ञ की भावना का पोषण करता है। ये गोषूक्ती और अश्वसूक्ती तो खूब यज्ञ करते हैं, इतना (यत्) = कि (भूमिम्) = इस पृथिवी को ही व्(यवर्तयत्) = उलट देते हैं। जैसे खूब दान देनेवाला सारी थैली को ही उलट देता है, उसी प्रकार ये यज्ञशील व्यक्ति अपने सारे कोश को उलटकर खाली कर देता है। अपने पास कुछ बचाता नहीं। यही सर्वमेधयज्ञ कहलाता है। यह यज्ञिय भावना हमारे अन्दर उत्पन्न हो, इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता है, अतः यह ऋषि (दिवि) = मूर्धा में [मस्तिष्क में] (ओपशम्) = मस्तक के ज्ञानरूप आभरण को (चक्राणः) = ग: - बनाने के स्वभाववाला होता है। यह ज्ञान उसे पवित्र करता है। उसमें यज्ञ की भावना को जगाये रखता है और इस प्रकार उसकी आत्मा को बलवान् बनाता है। ('कस्य स्विद् धनम्') = भला यह धन किसका है? यह सोचना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। यह धन आज तक किसी के साथ नहीं गया, यह समझकर मनुष्य यज्ञशील बनता है – भोगासक्त नहीं होता- धन व इन्द्रियों का दास नहीं बनता।
भावार्थ -
मनुष्य यज्ञशील बने, दानी हो और अपने मस्तिष्क को ज्ञान से अलंकृत करे ।
इस भाष्य को एडिट करें