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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1416
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣡ कि꣢रस्य सहन्त्य पर्ये꣣ता꣡ कय꣢꣯स्य चित् । वा꣡जो꣢ अस्ति श्र꣣वा꣡य्यः꣢ ॥१४१६॥

स्वर सहित पद पाठ

न । किः꣢ । अस्य । सहन्त्य । पर्येता꣢ । प꣣रि । एता꣢ । क꣡य꣢꣯स्य । चि꣣त् । वा꣡जः꣢꣯ । अ꣡स्ति । श्रवा꣡य्यः꣢ ॥१४१६॥


स्वर रहित मन्त्र

न किरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित् । वाजो अस्ति श्रवाय्यः ॥१४१६॥


स्वर रहित पद पाठ

न । किः । अस्य । सहन्त्य । पर्येता । परि । एता । कयस्य । चित् । वाजः । अस्ति । श्रवाय्यः ॥१४१६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1416
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे (सहन्त्य) = सभी शत्रुओं का अभिभव करनेवाले अग्ने ! (अस्य) = आपसे रक्षित [अवा: १४१५] तथा आपसे शक्ति को प्राप्त [जुना: १४१५] (कयस्य चित्) = अद्वितीय, विलक्षण शक्ति को प्राप्त पुरुष पर (पर्येता) = आक्रमण करनेवाला (न कि:) = कोई भी नहीं है। इसको कोई भी वासना आक्रान्त नहीं कर सकती। जहाँ आप, वहाँ वासना को आने का साहस नहीं । आपसे रक्षित इस पुरुष का (वाज:) = बल व ज्ञान (श्रवाय्यः) = श्रवणीय, कीर्तनीय व लोकोत्तर (अस्ति) = है । यह तो आपकी शक्ति से शक्तिमान् हो रहा है, अतः इसका बल आसाधारण होना स्वाभाविक ही है। लोहे का गोला जैसे अग्नि की चमक से चमकता है, इसी प्रकार यह आपकी शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर चमक उठता है। इसका वाज इसे बाह्य व आन्तर शत्रुओं से बचाता है । बल [वाज] यदि बाह्य शत्रुओं व रोगों को पराजित करता है तो ज्ञान [वाज] आन्तर- इ र - शत्रुओं को । इस प्रकार न इस पर रोग आक्रमण करते हैं, और न ही वासनाएँ ।

भावार्थ -

प्रभु की शक्ति व ज्ञान से सम्पन्न होकर हम रोगों व वासनाओं के लिए 'अपराजेय हो जाएँ।
 

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