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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1429
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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य꣡ज्जाय꣢꣯था अपूर्व्य꣣ म꣡घ꣢वन्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य । त꣡त्पृ꣢थि꣣वी꣡म꣢प्रथय꣣स्त꣡द꣢स्तभ्ना उ꣣तो꣡ दिव꣢꣯म् ॥१४२९॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । जा꣡य꣢꣯थाः । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । म꣡घ꣢꣯वन् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । ह꣡त्या꣢꣯य । तत् । पृ꣣थिवी꣢म् । अ꣣प्रथयः । त꣢त् । अ꣣स्तभ्नाः । उत꣢ । उ꣣ । दि꣡व꣢꣯म् ॥१४२९॥


स्वर रहित मन्त्र

यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उतो दिवम् ॥१४२९॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । जायथाः । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । मघवन् । वृत्रहत्याय । वृत्र । हत्याय । तत् । पृथिवीम् । अप्रथयः । तत् । अस्तभ्नाः । उत । उ । दिवम् ॥१४२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1429
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रभु कहते हैं कि हे (अपूर्व्य) = अद्वितीय [In-comparable] उन्नति कर सकनेवाले जीव ! (मघवन्) = अध्यात्मक ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले जीव ! (यत्) = जो तू (वृत्रहत्याय) = ज्ञान की आवरणभूत कामवासना के हनन के लिए (जायथा:) = उद्दिष्ट [to be destined for any thing] होता है, अर्थात् जब तेरा लक्ष्य वासना का विनाश हो जाता है और तू उसमें समर्थ होता है १. (तत्) = तब (पृथिवीम् अप्रथयः) = तू इस अपने पार्थिव शरीर को ठीक विस्तृत कर पाता है । वासना के विनाश के बिना शारीरिक विकास सम्भव नहीं। वासनाएँ शरीर को जीर्ण कर देती हैं । २. (उत तत् उ) = और तभी (दिवम्) = तू अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को (अस्तभ्नाः) = थामनेवाला होता है । वृत्र - विनाश से वीर्यरक्षा होती है—यह वीर्य ही मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और मनुष्य की विचारशक्ति को ठीक रखता है— उसकी बुद्धि मन्द नहीं पड़ जाती – सठिया नहीं जाती।

यह स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्कवाला व्यक्ति ‘नृ-मेध'=अन्य मनुष्यों के साथ सम्पर्कवाला बनता है। वासना-विनाश से इसके लिए स्वार्थ से ऊपर उठ सकना सम्भव हुआ— यह लोकहित में प्रवृत्त हो सका। इसका यह मेध=सङ्गम लोकरक्षण के लिए है, अत: यह 'पुरुमेध' [पृ=पालन] कहलाता है। यह वस्तुत: इस परार्थ के द्वारा ही स्वार्थ का भी साधन कर पाता है, क्योंकि यह परार्थ उसे वासनाओं से बचानेवाला प्रमाणित होता है, यह वासना का विजेता सचमुच 'अपूर्व्य'- अनुपम है – सच्ची अध्यात्म-सम्पत्ति को पाकर 'मघवा' कहलाने के योग्य है ।

भावार्थ -

हम वृत्रहत्या द्वारा स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्क को प्राप्त करनेवाले बनें। 

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