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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1515
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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अ꣡द꣢र्शि गातु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ य꣡स्मि꣢न्व्र꣣ता꣡न्या꣢द꣣धुः꣢ । उ꣢पो꣣षु꣢ जा꣣त꣡मार्य꣢꣯स्य꣣ व꣡र्ध꣢नम꣣ग्निं꣡ न꣢क्षन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥१५१५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡द꣢꣯र्शि । गा꣣तुवि꣡त्त꣢मः । गा꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । य꣡स्मि꣢꣯न् । व्र꣣ता꣡नि꣢ । आ꣣दधुः꣢ । आ꣣ । दधुः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । आ꣡र्य꣢꣯स्य । व꣡र्ध꣢꣯नम् । अ꣣ग्नि꣢म् । न꣣क्षन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥१५१५॥


स्वर रहित मन्त्र

अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपोषु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः ॥१५१५॥


स्वर रहित पद पाठ

अदर्शि । गातुवित्तमः । गातु । वित्तमः । यस्मिन् । व्रतानि । आदधुः । आ । दधुः । उप । उ । सु । जातम् । आर्यस्य । वर्धनम् । अग्निम् । नक्षन्तु । नः । गिरः ॥१५१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1515
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

४७ संख्या पर मन्त्रार्थ इस रूप में है

(अग्निम्) = आगे ले-चलनेवाले प्रभु को (नः) = हमारी (गिरः) = वाणियाँ (नक्षन्तु) = प्राप्त हों, जो प्रभु (आर्यस्य) = [ऋ गतौ] उन्नति के मार्ग पर नियमपूर्वक चलनेवाले को (वर्धनम्) = उत्साहित करनेवाले
हैं। (उ) = और (उपसुजातम्) = उत्तम प्रकार से समीप प्राप्त होनेवाले हैं। (गातुवित्तमः) = अतिशयेन दिव्य मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति प्रभु को (अदर्शि) = देखता ही है (यस्मिन्) = जिस प्रभु की प्राप्ति के निमित्त (व्रतानि आदधुः) = विविध व्रतों को धारण करते हैं । इस प्रकार अपने जीवन को आर्यत्व, व्रतशीलता व उत्तम मार्गों पर चलने की भावना से भरनेवाला यह व्यक्ति ‘सोभरि' कहलाता है । 

भावार्थ -

हम आर्य, व्रतशील व सुमार्ग पर चलनेवाले बनकर प्रभु का दर्शन करें। 

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