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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1516
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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य꣢स्मा꣣द्रे꣡ज꣢न्त कृ꣣ष्ट꣡य꣢श्च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि कृण्व꣣तः꣢ । स꣣हस्रसां꣢ मे꣣ध꣡सा꣢ताविव꣣ त्म꣢ना꣣ग्निं꣢ धी꣣भि꣡र्न꣢मस्यत ॥१५१६॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣡स्मा꣢꣯त् । रे꣡ज꣢꣯न्त । कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि । कृ꣣ण्वतः꣢ । स꣣हस्रसा꣢म् । स꣣हस्र । सा꣢म् । मे꣣ध꣡सा꣢तौ । मे꣣ध꣢ । सा꣣तौ । इव । त्म꣡ना꣢꣯ । अ꣣ग्नि꣢म् । धी꣣भिः꣢ । न꣣मस्यत ॥१५१६॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्माद्रेजन्त कृष्टयश्चर्कृत्यानि कृण्वतः । सहस्रसां मेधसाताविव त्मनाग्निं धीभिर्नमस्यत ॥१५१६॥


स्वर रहित पद पाठ

यस्मात् । रेजन्त । कृष्टयः । चर्कृत्यानि । कृण्वतः । सहस्रसाम् । सहस्र । साम् । मेधसातौ । मेध । सातौ । इव । त्मना । अग्निम् । धीभिः । नमस्यत ॥१५१६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1516
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(यस्मात्) = क्योंकि (चकृत्यानि) = अत्यन्त उत्तम कर्मों को या प्रभु-स्तवनों को [चर्कृति:= भृशमुत्तमा क्रिया – द०, praise— Apte] (कृण्वतः) = कृण्वन्तः = करते हुए (कृष्टयः) = उत्पादक काम करनेवाले मनुष्य (रेजन्ते) =[रेज् to shine] =चमकते हैं अथवा शत्रुओं को हिला देते हैं [रेज to shake], कामादि को कम्पित कर देते हैं। (मेधसातौ इव) = पवित्र वस्तुओं की प्राप्ति के निमित्त ही मानो यह जीवन मिला है। इस प्रकार (सहस्त्रसाम्) = अनन्त ऐश्वर्यों के प्राप्त करानेवाले (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु को (त्मना) = स्वयं इस मन के द्वारा (धीभिः) = प्रज्ञानों व कर्मों से (नमस्यत) = पूजित करो ।

जब मनुष्य यह समझ लेता है कि चमकता वही है, जो उत्तम कर्म करता है या प्रभु-स्तवन में लगता है तब वह इस जीवन को भोग भोगने की भूमि नहीं समझता । वह जीवन को कर्मभूमि समझता है और निश्चय करता है कि उसे इस जीवन में पवित्र वस्तुओं का सम्पादन करना है । उसके दृष्टिकोण में जीवन 'मेधसाति' है । पवित्र वस्तुओं की प्राप्ति के निमित्त ही वह प्रज्ञानों व कर्मों से प्रभु की उपासना करता है । वे प्रभु ही तो अन्ततः सब ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले हैं । इस प्रकार जीवन को उत्तम प्रज्ञानों, कर्मों व उपासना में बिताता हुआ यह ‘सोभरि' बनता है—जिसने जीवन का 'सु-भरण' किया है ।

भावार्थ -

कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए हम संसार में चमकनेवाले बनें ।

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