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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1598
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
1
म꣣ही꣢ मि꣣त्र꣡स्य꣢ साधथ꣣स्त꣡र꣢न्ती꣣ पि꣡प्र꣢ती ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢ य꣣ज्ञं꣡ नि षे꣢꣯दथुः ॥१५९८॥
स्वर सहित पद पाठम꣣ही꣡इति꣢ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । सा꣣धथः । त꣡र꣢꣯न्तीइ꣡ति꣢ । पि꣡प्र꣢꣯ती꣣इ꣡ति꣢ । ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । नि । से꣣दथुः ॥१५९८॥
स्वर रहित मन्त्र
मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम् । परि यज्ञं नि षेदथुः ॥१५९८॥
स्वर रहित पद पाठ
महीइति । मित्रस्य । मि । त्रस्य । साधथः । तरन्तीइति । पिप्रतीइति । ऋतम् । परि । यज्ञम् । नि । सेदथुः ॥१५९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1598
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - मित्र की साधना
पदार्थ -
द्युलोक व पृथिवीलोक का उपासक ‘मित्र' है १. यह ज्ञान व शरीर की दृढ़ता के द्वारा ‘प्रमीतेः त्रायते'=असमय की मृत्यु से अपने को बचाता है । २. ज्ञान के कारण ही यह 'संमिन्वानो द्रवति'इस संसार में प्रत्येक क्रिया को माप-तोल कर करता है तथा ३. इस मेदिनी - पृथिवी के सम्पर्क में आकर ‘मेदयते' सबके साथ स्नेह करता है, यह सम्पूर्ण पृथिवी का नागरिक बन जाता है, इसे सभी से प्रेम होता है ।
(मही) = ये महनीय द्युलोक व पृथिवीलोक (मित्रस्य) = इस मित्र की (साधथ:) = साधना को पूर्ण करते हैं । (तरन्ती) = ये उसे सब (विघ्न) = बाधाओं से पार करते हैं और (ऋतम् पिप्रती) = उसके अन्दर यज्ञ की भावना को भरते हैं ।
ये द्युलोक व पृथिवीलोक स्वयं भी तो (यज्ञं परिनिषेदथुः) = सर्वतः यज्ञ का आश्रय करते हैं । अपने उपासक के जीवन को भी ये यज्ञ की भावना से पूर्ण करते हैं ।
भावार्थ -
हम मित्र बनकर द्युलोक व पृथिवीलोक के सच्चे उपासक बनें । ज्ञान व दृढ़ता ही वे दो गुण हैं जो हमें सब विघ्न-बाधाओं से पार करेंगे।
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