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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1602
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हवींषि वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣ही꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥१६०२॥

स्वर सहित पद पाठ

गा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उ꣡भा । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥१६०२॥


स्वर रहित मन्त्र

गाव उप वदावटे मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥१६०२॥


स्वर रहित पद पाठ

गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥१६०२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1602
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

हृदयस्थ प्रभु से बात करने का प्रसङ्ग गत मन्त्र में था । उसी प्रसङ्ग में कहते हैं कि – हे प्रभो ! आप (अवटे) = हृदयाकाश में (गाव:) = वेदवाणियों का (उपवद) = समीपता से उच्चारण कीजिए। जो वाणियाँ (मही) = महनीय—अर्थ गौरववाली हैं, (यज्ञस्य रप्सुदा) = यज्ञों का उत्तम उपदेश देनेवाली है तथा (उभा कर्णा हिरण्यया) = दोनों कानों के लिए हित और रमणीय हैं ।

भावार्थ -

हृदयस्थ प्रभु हित रमणीय बात का उपदेश दे रहे हैं, हम ध्यान से सुनें । 

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