Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1674
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - विष्णुर्देवो वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
1

अ꣡तो꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢वन्तु नो꣣ य꣢तो꣣ वि꣡ष्णु꣢र्विचक्र꣣मे꣢ । पृ꣣थिव्या꣢꣫ अधि꣣ सा꣡न꣢वि ॥१६७४॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡तः꣣ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣वन्तु । नः । य꣡तः꣢꣯ । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि꣣चक्रमे꣢ । वि꣣ । चक्रमे꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि ॥१६७४॥


स्वर रहित मन्त्र

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्या अधि सानवि ॥१६७४॥


स्वर रहित पद पाठ

अतः । देवाः । अवन्तु । नः । यतः । विष्णुः । विचक्रमे । वि । चक्रमे । पृथिव्याः । अधि । सानवि ॥१६७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1674
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
Acknowledgment

पदार्थ -

(यतः) = क्योंकि (विष्णुः) = व्यापक मनोवृत्तिवाले ने (विचक्रमे) = विशेषरूप से तीन पगों को रक्खा है–उसने मस्तिष्क में ज्ञान को भरने का प्रयत्न किया है, हाथों को यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगाया है तथा हृदय को भक्ति से परिपूर्ण किया है, (अतः) = इसलिए (नः) = हमारे (देवाः) = दिव्य गुण (पृथिव्याः) = इस पार्थिव शरीर के (अधिसानवि) = शिखर पर अवन्तु उन्नत करें, प्राप्त कराएँ । 

उल्लिखित मन्त्रार्थ में यह बात स्पष्ट है कि तीन पगों को रखने के कारण यह मनुष्य 'विष्णु' है। ज्ञान, कर्म व भक्तिरूप तीन कदमों के कारण उसमें दिव्य गुणों की उत्पत्ति होती है, और ये दिव्य गुण उसे उन्नति के शिखर पर पहुँचाते हैं। इस पार्थिव शरीर में जितना ऊँचा उठना सम्भव है, उतना इसी प्रकार हम पहुँच सकते हैं।

उन्नति का अनुपात व्यापकता मूलक ही है । जितनी व्यापक हमारी मनोवृत्ति होगी उतनी ही अधिक उन्नति हम कर पाएँगे। व्यापाक मनोवृत्तिवाला व्यक्ति ही 'विष्णु' है— यह उन्नति के शिखर पर पहुँचता है।

भावार्थ -

‘ज्ञान, कर्म व भक्ति' की त्रयी, दिव्य गुणों को उत्पन्न करके, हमें उन्नति के शिखर पर ले जानेवाली हो ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top