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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1675
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
मो꣡ षु त्वा꣢꣯ वा꣣घ꣡त꣢श्च꣣ ना꣢꣫रे अ꣣स्म꣡न्नि री꣢꣯रमन् । आ꣣रा꣡त्ता꣢द्वा सध꣣मा꣡दं꣢ न꣣ आ꣡ ग꣢ही꣣ह꣢ वा꣣ स꣡न्नु꣢꣯प श्रुधि ॥१६७५॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । उ꣣ । सु꣢ । त्वा꣣ । वाघ꣡तः꣢ । च꣣ । न꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣣स्म꣢न् । नि । री꣣रमन् । आरा꣡त्ता꣢त् । वा꣣ । सधमा꣡द꣢म् । स꣣ध । मा꣡द꣢꣯म् । नः꣣ । आ꣢ । ग꣣हि । इह꣢ । वा꣣ । स꣢न् । उ꣡प꣢꣯ । श्रु꣢धि ॥१६७५॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु त्वा वाघतश्च नारे अस्मन्नि रीरमन् । आरात्ताद्वा सधमादं न आ गहीह वा सन्नुप श्रुधि ॥१६७५॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । उ । सु । त्वा । वाघतः । च । न । आरे । अस्मन् । नि । रीरमन् । आरात्तात् । वा । सधमादम् । सध । मादम् । नः । आ । गहि । इह । वा । सन् । उप । श्रुधि ॥१६७५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1675
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - समीपतम
पदार्थ -
यह मन्त्र २८४ संख्या पर व्याख्यात है। सरलार्थ यह है -
हे प्रभो ! (वाघतः चन) = तेरा वहन करनेवाले विद्वान् भी (अस्मत् आरे) = हमसे दूर स्थान में (त्वा) = आपको (मा उ) = मत ही सु उत्तम प्रकार से (निरीरमन्) = प्रीणित करें। आपकी चर्चा के द्वारा जब विद्वान् आपकी आराधना करें तब हमारे समीप ही आपकी चर्चा करें। इस प्रकार हम उस वातावरण में रहें जहाँ आपकी चर्चा चलती हो ।
(वा) = अथवा (आरातात्) = इस दूर स्थान से भी (न:) = हमारे (सधमादम्) = आपके साथ मिलकर आनन्दित होने के उपासना स्थान में आगहि आ जाइए ।
और सबसे अच्छा तो यह है कि (इह वा) = यहाँ ही हमारे हृदयों में (सन्) = होते हुए (उपश्रुधि) = समीपता से हमें वेदवाणियों का श्रवण कराइए ।
विद्वानों की सभाओं में हम आपकी चर्चा सुनें, अपने उपासना-गृहों में आपका जपन करें और अन्त में हृदयस्थ आपसे वेदवाणियों का श्रवण करें। इस प्रकार आपके अत्यन्त सामीप्य का अनुभव करें।
भावार्थ -
हम प्रभु के अत्यन्त समीप होने का प्रयत्न करें ।