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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1730
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
व꣣च्य꣡न्ते꣢ वां ककु꣣हा꣡सो꣢ जू꣣र्णा꣢या꣣म꣡धि꣢ वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । य꣢द्वा꣣ꣳ र꣢थो꣣ वि꣢भि꣣ष्प꣡ता꣢त् ॥१७३०॥
स्वर सहित पद पाठव꣣च्य꣡न्ते꣢ । वा꣣म् । ककुहा꣡सः꣢ । जू꣣र्णा꣡या꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । यत् । वा꣣म् । र꣡थः꣢꣯ । वि꣡भिः꣢꣯ । प꣡ता꣢꣯त् ॥१७३०॥
स्वर रहित मन्त्र
वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वाꣳ रथो विभिष्पतात् ॥१७३०॥
स्वर रहित पद पाठ
वच्यन्ते । वाम् । ककुहासः । जूर्णायाम् । अधि । विष्टपि । यत् । वाम् । रथः । विभिः । पतात् ॥१७३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1730
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - वृद्ध भी युवा [ वृद्ध, पर युवा से भी युवा ]
पदार्थ -
यह शरीर आयु साथ धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है और एक दिन कहते हैं कि यह जीर्ण हो गया। अपने कर्मफलों को भोगने व नवीन कर्मों को करने के लिए हमने इस शरीर में प्रवेश किया था, अत: ‘विशन्ति अत्र' इस व्युत्पत्ति से इसे 'विष्टप्' कहने लगे । जब यह विष्टप् दीर्घकाल की क्षति [wear and tear] से घिसकर क्षीण हो जाता है तब यह जीर्ण या 'जूर्णा विष्टप्' कहलाता है। यही विष्टप् ‘रथ' है, क्योंकि जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए दिया गया है। (जूर्णायां अधि विष्टपि) = इस जीर्ण हो जानेवाले शरीर में (यत्) = यदि यह (वाम्) = हे अश्विनीदेवो! आपका (रथ:) = रथ (विभिः) = पक्षियों से स्पर्धा करता हुआ (पतात्) = गतिशील होता है, अर्थात् यदि इस रथ में वृद्धावस्था से किसी प्रकार की क्षीणता नहीं आती, क्षीणता आनी तो दूर रही, यह पक्षियों की गति के समान तीव्रता व स्फूर्ति से आगे और आगे बढ़ता है तो (वाम्) = हे प्राणापानो ! आपकी ही (ककुहास:) = महत्ताएँ [ककुभ् महान्] (वच्यन्ते) = कही जाती हैं । यह प्राणापानों की साधना का ही परिणाम है कि अन्त तक सशक्त बना रहता है – इसकी गति मन्द नहीं होती, यह तो पक्षियों की तरह फुदकता है इसमें स्फूर्ति होती है— यह वृद्ध नहीं, युवा ही प्रतीत होता है। प्राणापान की साधना से शरीर नीरोग बना रहता है, वीर्य का संयम होता है, मन में चिड़चिड़ापन नहीं होता । ये सब बातें मनुष्य को युवा बनाये रहती हैं ।
भावार्थ -
मैं प्राणापन की साधना करूँ और इनकी कृपा से वृद्धावस्था में भी नवयुवक ही बना रहूँ ।
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