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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1777
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - पदपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
अ꣢ग्ने꣣ त꣢म꣣द्या꣢श्वं꣣ न꣢꣫ स्तोमैः꣣ क्र꣢तुं꣣ न꣢ भ꣣द्र꣡ꣳ हृ꣢दि꣣स्पृ꣡श꣢म् । ऋ꣣ध्या꣡मा꣢ त꣣ ओ꣡हैः꣢ ॥१७७७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । तम् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । स्तो꣡मैः꣢꣯ । क्र꣡तु꣢꣯म् । न । भ꣣द्र꣢म् । हृ꣣दिस्पृ꣡श꣢म् । हृ꣣दि । स्पृ꣣श꣢म् । ऋ꣣ध्या꣡म꣢ । ते । ओ꣡हैः꣢꣯ ॥१७७७॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रꣳ हृदिस्पृशम् । ऋध्यामा त ओहैः ॥१७७७॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । तम् । अद्य । अ । द्य । अश्वम् । न । स्तोमैः । क्रतुम् । न । भद्रम् । हृदिस्पृशम् । हृदि । स्पृशम् । ऋध्याम । ते । ओहैः ॥१७७७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1777
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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विषय - व्यापकता व क्रियाशीलता
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि वामदेव कहता है कि (अग्ने) = हे सर्वोन्नतियों के साधक अग्रेणी प्रभो! (अश्वं न) = व्यापकता के अनुसार और (क्रतुं न) = संकल्प व क्रियाशीलता के अनुसार (भद्रम्) = कल्याण करनेवाले (तम्) = उन आपको (अद्य) = आज (स्तोमैः) = स्तुतियों से हम (ऋध्याम) = बढ़ाते हैं। मनुष्य की मनोवृत्ति जितनी व्यापक होगी, जितना वह क्रियाशील होगा उतना ही उसका कल्याण होगा। ‘व्यापकता व क्रियाशीलता' इन दो तत्त्वों का अपनाना नितान्त आवश्यक है । हे प्रभो ! आप तो (हृदिस्पृशम्) = प्रतिक्षण मेरे हृदय को छूनेवाले हो । मैं अच्छा कर्म करूँ तो उत्साह, बुरा करूँ तो 'भय शंका व लज्जा' के देनेवाले हो । आपसे निरन्तर प्रेरणा प्राप्त करता हुआ मैं अपने जीवन में अधिकाधिक व्यापक मनोवृत्तिवाला तथा क्रियाशील बनूँ । =
मैं उन स्तोमों से आपका स्तवन करूँ जो (ते ओहैः) = आपको प्राप्त करानेवाले हैं। आपकी स्तुतियों से मेरे हृदय में भी एक प्रेरणा उत्पन्न होती है- -आप 'हृदिस्पृक्' तो हैं ही । उन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर मैं जिस मार्ग पर चलता हूँ वह मार्ग मुझे आपके अधिक और अधिक समीप प्राप्त कराता है। मैं भी आपके समान ‘दयालु व न्यायकारी' बनने का प्रयत्न करता हूँ और जितने अंश में बन पाता हूँ उतना आपके समीप हो जाता हूँ।
‘आपकी प्रत्येक क्रिया किस प्रकार व्यापक है' यह विचार करता हुआ मैं भी अपनी क्रियाओं में व्यापकता लाने का प्रयत्न करता हूँ और जिस प्रकार आप स्वाभाविक रूप से क्रियाशील हैं उसी प्रकार मैं भी अपनी क्रियाओं में स्वाभाविकता लाने का प्रयत्न करता हूँ – क्रिया मेरा स्वभाव हो जाता है। अकर्मण्यता मेरे पास नहीं फटकती। अकर्मण्यता में पनपनेवाले अवगुणों को समाप्त कर मैं अपने को ‘वामदेव'= सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बना पाता हूँ ।
भावार्थ -
मेरी मनोवृत्ति व्यापक हो, मेरे हाथ सदा सुकर्मों में व्याप्त हों ।