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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 344
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣म꣡मि꣢न्द्र सु꣣तं꣡ पि꣢ब꣣ ज्ये꣢ष्ठ꣣म꣡म꣢र्त्यं꣣ म꣡द꣢म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ त्वा꣣꣬भ्य꣢꣯क्षर꣣न्धा꣡रा꣢ ऋ꣣त꣢स्य꣣ सा꣡द꣢ने ॥३४४॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣म꣢म् । इ꣣न्द्र । सुत꣢म् । पि꣣ब । ज्ये꣡ष्ठ꣢꣯म् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । म꣡द꣢꣯म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ । त्वा꣣ । अभि꣢ । अ꣣क्षरन् । धा꣡राः꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सा꣡द꣢꣯ने ॥३४४॥


स्वर रहित मन्त्र

इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम् । शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥३४४॥


स्वर रहित पद पाठ

इमम् । इन्द्र । सुतम् । पिब । ज्येष्ठम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । मदम् । शुक्रस्य । त्वा । अभि । अक्षरन् । धाराः । ऋतस्य । सादने ॥३४४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 344
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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पदार्थ -

हे (इन्द्र)=इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (इमं सुतम्) = [शुक्रम्] इस उत्पन्न वीर्य को (पिब) = तू अपने अन्दर पान करने का प्रयत्न करने कर। यह १. (ज्येष्ठम्) = प्रशस्यतम वस्तु है-इससे उत्तम वस्तु संसार में और कोई नहीं। यह तेरे जीवन को भी प्रशस्यतम बना देगी। २. (अमर्त्यम्) = इससे तू अमरता को प्राप्त करेगा ('मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्') =इन सोमबिन्दुओं के धारण से ही जीवन धारित होता है और इनके नाश से ही मृत्यु हो जाती है। ३. (मदम्) = इनसे जीवन में [मदी हर्षे] उल्लास होता है। जीवन सदा हर्षमय बना रहता है।

प्रभु कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (शुक्रस्य) = इस पवित्र, दीप्त व स्फूर्तिमय सोम की (धारा:) = धारण शक्तियाँ (ऋतस्य सादने) = ऋत के स्थान में (अभ्यक्षरन्) = टपका दें, पहुँचा दें। यहाँ सुरक्षित सोम हमारे योगमार्ग में आगे बढ़ने का भी साधन बनता है। योग भूमिकाओं में आगे बढ़ने का भी साधन बनता है। योग भूमिकाओं में आगे और आगे बढ़ते हुए हम सप्तम भूमिका में पहुँचते हैं जहाँ कि ‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' [योग] सत्य का पोषण करनेवाला ज्ञान प्राप्त होता है जिसे 'भू: भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्' इस क्रम में सत्यलोक यह नाम दिया है। यहाँ पहुँचकर मनुष्य सर्वज्ञकल्प हो जाता है।

सोमरक्षा से हम सब मलों से ऊपर उठकर पूर्ण पवित्र बन जाते हैं। मलों को छोड़नेवाला ‘राहू' [रह् त्यागे] है, उनमें भी मूर्धन्य गिना जानेवाला 'राहूगण' है। निर्मल होकर अत्यन्त पवित्र इन्द्रियोंवाला होने के कारण यह 'गौतम' है।
 

भावार्थ -

सोमरक्षा के द्वारा ऐहिक जीवन को हम पवित्र, दीर्घ व उल्लासमय बनाएँ और पारमार्थिक दृष्टिकोण से सत्यलोक में पहुँचनेवाले बनें।

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