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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 36
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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पा꣣हि꣡ नो꣢ अग्न꣣ ए꣡क꣢या पा꣣ह्यू꣡३꣱त꣢ द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ गी꣣र्भि꣢स्ति꣣सृ꣡भि꣢रूर्जां पते पा꣣हि꣡ च꣢त꣣सृ꣡भि꣢र्वसो ॥३६॥

स्वर सहित पद पाठ

पा꣣हि꣢ । नः꣣ । अग्ने । ए꣡क꣢꣯या । पा꣣हि꣢ । उ꣣त꣢ । द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ । गी꣣र्भिः꣢ । ति꣣सृ꣡भिः꣢ । ऊ꣣र्जाम् । पते । पाहि꣢ । च꣣तसृ꣡भिः꣢ । व꣣सो ॥३६॥


स्वर रहित मन्त्र

पाहि नो अग्न एकया पाह्यू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥३६॥


स्वर रहित पद पाठ

पाहि । नः । अग्ने । एकया । पाहि । उत । द्वितीयया । पाहि । गीर्भिः । तिसृभिः । ऊर्जाम् । पते । पाहि । चतसृभिः । वसो ॥३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 36
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

हे (अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले प्रभो! (एकया) = ऋग्रूपी प्रथम वाणी से (न:)- हमारी (पाहि) = रक्षा कीजिए, ( )= और द्वितीयया यज्ञरूप द्वितीय वाणी से भी पाहि रक्षा कीजिए।

 ऋग्=विज्ञान वेद है। बिना विज्ञान के मनुष्य की उन्नति सम्भव नहीं। संसार में जिन जातियों ने विज्ञान में प्रगति की, वे आगे बढ़ गईं, परन्तु इसी अग्रगति के लिए 'यजूरूप वाणी' से भी रक्षा की प्रार्थना की गई है। यजुर्वेद कर्मवेद है। उसमें उत्तम कर्मों का प्रतिपादन है। लोकहित के लिए कर्म करने का उपदेश है। जब विज्ञान का प्रयोग यज्ञमय कर्मों में न करके, नाशक कर्मों के लिए किया जाता है तब वही विज्ञान अवनति का कारण बन जाता है, ऋग् और यजुः [विज्ञान व उत्तम कर्म] मिलकर हमारी उन्नति करें और हमारे रक्षक हों। अतः

हे (ऊर्जाम्पते)= सामर्थ्यो के स्वामिन् ! (तिसृभिः)= पहली दो वाणियों के साथ तृतीय सामरूप वाणी से भी हमारी (पाहि)= रक्षा कीजिए। यह साम ही उपासना है, परमेश्वर के सम्पर्क में आना है, और ट्राईन के शब्दों में “In tune with the Infinite” [अनन्त के साथ एक तान में होना] है, तभी तो उसकी शक्ति का प्रवाह हममें हो सकता है और हम भी उसकी शक्तियों से शक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं ।

(वसो)=हे निवासक प्रभो! हमें (चतसृभिः) = प्रथम तीन के साथ चौथी अथर्वरूप वाणी से भी (पाहि)=सुरक्षित कीजिए। यह अथर्ववाणी मुख्यरूप से दो संकेत कर रही है। एक तो (‘अ-थर्व')=नहीं डाँवाडोल होना और दूसरा ('अथ- अर्वाङ्') = अब अपने अन्दर अर्थात् औरों का अध्ययन करते रहने की बजाय अपना ही अध्ययन करना। ये ही दो बातें हमारे बसने व न उजड़ने का मुख्य साधन हैं। डाँवाडोल होना, दृढ़ निश्चय से कार्यों को न करना तथा दूसरों के दोषों का दर्शन करते रहने की बजाय आत्म- निरीक्षण द्वारा अपने दोषों को जानकर उन्हें दूर करना ही (वसु)= उत्तम निवासवाले बनने के साधन हैं। इस प्रकार चारों वेदों की ज्ञानाग्नियों से अपने को परिपक्व कर हम इस मन्त्र के ऋषि ‘भर्ग' [भ्रस्ज पाके] बनेंगे और इस प्रकार प्रभु का सच्चा गायन करनेवाले 'प्रगाथ' होंगे।
 

भावार्थ -

हम विज्ञान का यज्ञों में प्रयोग कर आगे बढ़ें। भक्ति द्वारा मानस बल को बढ़ाएँ तथा स्थिर संकल्प व स्वाध्याय से वसु [उत्तम बसने व बसानेवाले] बनें।

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