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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 511
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
4
पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ धा꣡र꣢या꣣पो꣡ वसा꣢꣯नो अर्षसि । आ꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ योनि꣢꣯मृ꣣त꣡स्य꣢ सीद꣣स्युत्सो꣢ दे꣣वो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥५११॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣नानः꣢ । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । अ꣣पः꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣣र्षसि । आ꣢ । र꣣त्नधाः꣢ । र꣣त्न । धाः꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दसि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देवः꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥५११॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि । आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देवो हिरण्ययः ॥५११॥
स्वर रहित पद पाठ
पुनानः । सोम । धारया । अपः । वसानः । अर्षसि । आ । रत्नधाः । रत्न । धाः । योनिम् । ऋतस्य । सीदसि । उत्सः । उत् । सः । देवः । हिरण्ययः ॥५११॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 511
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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विषय - सप्त ऋषि
पदार्थ -
(सोम) = हे सोम! तू (धारया) = धारण के हेतु से (पुनान:) = मेरे शरीर को पवित्र कर डालता है। तू इस शरीर में मलों का संचय नहीं होने देता, न रोग होते हैं, न शक्ति क्षीण होती है। उत्तरोत्तर शक्ति का संचय होकर मैं 'भरद्वाज' - अपने में शक्ति को भरनेवाला बनता हूँ। शक्ति के साथ मस्तिष्क की पवित्रता से मैं ज्ञान - सम्पन्न 'बार्हस्पत्य' बनता हूँ। मेरे स्वस्थ शरीर में मन भी स्वस्थ होता है। मेरा दृष्टिकोण ठीक होता है, मैं संसार के तत्त्व को देखता ‘कश्यप’ बनता हूँ। आलस्य इत्यादि की भावनाओं को मारनेवाला ‘मारीच' होता हूँ। ऐसा व्यक्ति सारे संसार को क्रियाशील देखता हुआ, क्रिया को ही संसार का मूलतत्त्व समझता हुआ, (अपो वसानः अर्षसि) = कर्मों को धारण करता हुआ गति करता है। ('क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठ:') = ब्रह्मज्ञानियों में क्रियावान् ही श्रेष्ठ है।
हे सोम! तू (आ) = सब ओर - सब इन्द्रियों में (रत्नधा) = रमणीयता को धारण करनेवाला है । मेरी एक-एक इन्द्रिय को तू रमणीय बनाता है। रमणीय इन्द्रियोंवाला मैं 'गोतम'=प्रशस्तेन्द्रिय कहलाता हूँ। इन्द्रियों के सब दोषों का त्याग करनेवाला मैं त्यागियों में गिनने योग्य 'राहूगण' [रह त्यागे] बनता हूँ।
हे सोम! तू (ऋतस्य) = ऋत के (योनिम्) = उत्पत्ति स्थान परमात्मा में (सीदसि) = स्थित होता है। 'ऋत और सत्य प्रभु के दीप्त तप से ही उत्पन्न होते हैं। यह सोम का संयम करनेवाला भौम: = इस भूमि का व्यक्ति होता हुआ भी ‘अत्रि’-काम-क्रोध-लोभ - तीनों से ऊपर उठकर तीनों कष्टों से अतीत प्रभु के अंक का आश्रय करता है।
(उत्सः) = यह सोमी पुरुष तो एक प्रेम का स्रोत - झरना ही है।
(देव:) = तू दीप्त है, तू ज्ञान से सभी को द्योतित करनेवाला है [देवो दीपनात् वा द्यौतनाद्वा]। दीप्त ज्ञानाग्निवाला यह 'जमदग्नि' है - इसकी ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है। यह भार्गव - ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला होता है।
(हिरण्ययः) = इसका जीवन स्वर्णिम [Golden] हो जाता है। यह किसी भी अति [Extreme] में न पड़कर सदा मध्यमार्ग से चलता है - यही तो वास्तविक संयम है। इस संयम का पुतला यह 'वसिष्ठ' है- सर्वोत्तम वशी। इस प्रकार सोम मेरे सभी ऋषियों को बड़ा ठीक रखनेवाला है।
भावार्थ -
सोम के संयम से मैं सप्तर्षियों का आराधन करूँ।
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