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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 538
ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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सा꣣कमु꣡क्षो꣢ मर्जयन्त꣣ स्व꣡सा꣢रो꣣ द꣢श꣣ धी꣡र꣢स्य धी꣣त꣢यो꣣ ध꣡नु꣢त्रीः । ह꣢रिः꣣ प꣡र्य꣢द्रव꣣ज्जाः꣡ सूर्य꣢꣯स्य꣣ द्रो꣡णं꣢ ननक्षे꣣ अ꣢त्यो꣣ न꣢ वा꣣जी꣢ ॥५३८॥

स्वर सहित पद पाठ

सा꣣कमु꣡क्षः꣢ । सा꣣कम् । उ꣡क्षः꣢꣯ । म꣣र्जयन्त । स्व꣡सा꣢꣯रः । द꣡श꣢꣯ । धी꣡र꣢꣯स्य । धी꣣त꣡यः꣢ । ध꣡नु꣢꣯त्रीः । ह꣡रिः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । अ꣣द्रवत् । जाः꣢ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । सु । ऊ꣣र्यस्य । द्रो꣡णं꣢꣯ । न꣣नक्षे । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । वा꣣जी꣢ ॥५३८॥


स्वर रहित मन्त्र

साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः । हरिः पर्यद्रवज्जाः सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥५३८॥


स्वर रहित पद पाठ

साकमुक्षः । साकम् । उक्षः । मर्जयन्त । स्वसारः । दश । धीरस्य । धीतयः । धनुत्रीः । हरिः । परि । अद्रवत् । जाः । सूर्यस्य । सु । ऊर्यस्य । द्रोणं । ननक्षे । अत्यः । न । वाजी ॥५३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 538
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

दुःखों सुखों से ऊपर उठ जानेवाले इस (धीरस्य) = धीर पुरुष की (धीतयः) = ध्यानवृत्तियाँ अन्तःकरण की वृत्तियाँ १. (साकमुक्षः) = [साकम् उ क्षः] सदा साथ रहनेवाली होती हैं। सामान्यतः मनुष्य का मन विविध विषयों के ध्यान में भागा रहता है - कभी पर्वतों, कभी समुद्रों और कभी दिशाओं में भटकता रहता है [मनो जगाम् दूरकम् ], परन्तु धीर पुरुष इसे इधर-उघर भागने से रोककर एकाग्रवृत्तिवाला बनाता है। उसकी चित्तवृत्ति आत्मा के साथ निवास करनेवाली होती है - वस्तुतः 'स्व-स्थ' तो यही पुरुष है। फिर २. (मर्जयन्त) = धीर की चित्तवृत्तियाँ उसे [मृजू शुद्धौ] शुद्ध बनाती हैं। विषय-पकों में न उलझकर यह शुद्ध बना रहता है। ३. (स्व-सार:) = धीर की चित्तवृत्तियाँ 'स्व' = आत्मा की ओर 'सार:= चलनेवाली होती हैं, अतएव ४. (धनुत्री:) = विशेष प्रेरणा को प्राप्त करानेवाली होती है। इन विशेष प्रेरणाओं को प्राप्त इस विशिष्ट जीवनवाले धीर पुरुष का चरित्र निम्न विशेषताओं से युक्त होता है - ५. (हरि:) = यह औरों के दुःखों का हरण करनेवाला होता है, ६. (पर्यद्रवत्) = यह जहाँ भी कष्ट देखता है उसी स्थान पर पहुँचता है, यह परि= चारों ओर (अद्रवत्) = गति करता है, 'परिव्राजक' बनता है ७. उस उस स्थान पर पहुँचकर (सूर्यस्य जाः) = यह ज्ञान के सूर्य का प्रकाशक होता है। लोगों के अज्ञान अन्धकार को दूर करता है । ८. यह (द्रोणम्) = नानाविधि कष्टों से उप- द्रुत - पीड़ित संसार के प्रति (ननक्षे) = जाता है, अर्थात् अपनी ही समाधि के आनन्द में न फँसकर लोगों के दुःखों व अज्ञानों को दूर करने मंस समय व्यतीत करता है ९. यह (अत्यः न) = सतत् गतिशील घोड़े के समान होता है। आराम को तिलाञ्जलि देकर यह लोकहित में लगा हुआ है-थकता नहीं (वाजी) = शक्तिशाली जो है । वस्तुतः आत्मा के साथ रहनेवाली ध्यानवृत्तियों ने इसके जीवन को बड़ा शक्तिशाली बना दिया है। प्रेयमार्ग में ही क्षीणता है, श्रेयमार्ग में शक्ति। इस शक्ति को प्राप्त करके यह ‘सर्वभूतहिते रतः' है, उसके लिए सतत गतिशील है। उल्लिखित नौं बातों से युक्त जीवनवाला 'नवधा' = नोधा है - इसी प्रभु की दृश्य नव-स्तुति को धारण करनेवाला है [नू - स्तुतौ ] |

भावार्थ -

मेरा जीवन एकाग्रता व दिव्यशक्ति के द्वारा लोकहित में अर्पित हो ।

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