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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 76
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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इ꣡डा꣢मग्ने पुरु꣣द꣡ꣳस꣢ꣳ स꣣निं꣡ गोः श꣢꣯श्वत्त꣣म꣡ꣳ हव꣢꣯मानाय साध । स्या꣡न्नः꣢ सू꣣नु꣡स्तन꣢꣯यो वि꣣जा꣢꣫वाग्ने꣣ सा꣡ ते꣢ सुम꣣ति꣡र्भू꣢त्व꣣स्मे꣢ ॥७६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡डा꣢꣯म् । अ꣣ग्ने । पुरुदँ꣡स꣢म् । पु꣣रु । दँ꣡स꣢꣯म् । स꣣नि꣢म् । गोः । श꣣श्वत्तम꣢म् । ह꣡व꣢꣯मानाय । सा꣣ध । स्या꣢त् । नः꣣ । सूनुः꣢ । त꣡न꣢꣯यः । वि꣣जा꣡वा꣢ । वि꣣ । जा꣡वा꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣣ । सा । ते꣣ । सुमतिः꣢ । सु꣣ । मतिः꣢ । भू꣣तु । अस्मे꣡इति꣢ ॥७६॥
स्वर रहित मन्त्र
इडामग्ने पुरुदꣳसꣳ सनिं गोः शश्वत्तमꣳ हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥७६॥
स्वर रहित पद पाठ
इडाम् । अग्ने । पुरुदँसम् । पुरु । दँसम् । सनिम् । गोः । शश्वत्तमम् । हवमानाय । साध । स्यात् । नः । सूनुः । तनयः । विजावा । वि । जावा । अग्ने । सा । ते । सुमतिः । सु । मतिः । भूतु । अस्मेइति ॥७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 76
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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विषय - हमें आपकी सुमति प्राप्त हो
पदार्थ -
हे (अग्ने)=प्रभो! (हवमानाय) = तुझे पुकारनेवाले मेरे लिए (शश्वत्तमम्) = सनातन (इडाम्) = वेदवाणी को–जोकि मानव के लिए [इडा-इ+ला= a law] सृष्टि के आरम्भ में दिया गया विधान है, (साध) = सिद्ध कीजिए। मैं इस वेदवाणी को अच्छी प्रकार समझ सकूँ। यह वेदवाणी (पुरुदंसम्) = पूरक और पालक कर्मों का उपदेश देनेवाली है [पुरु= पृ पालनपूरणयोः, दंस:-कर्म]। ‘मनुष्य को किस प्रकार अपनी न्यूनताओं को दूर करना और किस प्रकार पालक- अहिंसक कर्मों में प्रवृत्त होना' इस बात का उपदेश इस वेदवाणी में दिया गया है तथा यह वेदवाणी गो:सनिम्=ज्ञान की रश्मियों को देनेवाली है। प्रत्येक पदार्थ के तत्त्व का ज्ञान इसमें उपलभ्य है।
(नः) = हमारे (सूनुः) = पुत्र भी हमारे पदचिह्नों पर चलते हुए (तनयः) = विस्तार करनेवाले, शरीर, मन व बुद्धि को विशाल बनानेवाले, यज्ञ को विस्तृत करनेवाले, शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की उन्नति करनेवाले हों। वस्तुतः जिन घरों में इस वेदवाणी का अध्ययन व अनुष्ठान चलता रहेगा, वहाँ वंश उत्तम बना रहेगा। इसलिए (अग्ने) = हे प्रभो! हमारी यही आराधना है कि (सा) = वह ते तेरी (सुमतिः) = वेद में उपदिष्ट कल्याणि मति अस्मे हममें भूतु सदा बनी रहे। हम संसार की चमक से आकृष्ट होकर उस सद्बुद्धि को छोड़ न दें। धन-धान्य, स्तुति–प्रशंसाएँ व शानदार जीवनादि के प्रलोभन हमें वेदोपदिष्ट न्याय्य मार्ग से विचलित न कर दें। हम संसार-चक्र में उलझकर राग-द्वेष में न फँस जाएँ ।
भावार्थ -
हे प्रभो! आपकी कृपा से हम राग-द्वेष से ऊपर उठकर सदा आपका गायन करनेवाले ‘गाथिनः’ व प्राणिमात्र के मित्र ‘विश्वामित्र’ बन पाएँगे और इस प्रकार इस मन्त्र के ऋषि ‘गाथिन विश्वामित्र' होंगे।
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