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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 89
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣡ग꣢न्म वृत्र꣣ह꣡न्त꣢मं꣣ ज्ये꣡ष्ठ꣢म꣣ग्नि꣡मान꣢꣯वम् । य꣡ स्म꣢ श्रु꣣त꣡र्व꣢न्ना꣣र्क्षे꣢ बृ꣣ह꣡द꣢नीक इ꣣ध्य꣡ते꣢ ॥८९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग꣢꣯न्म । वृ꣣त्रह꣡न्त꣢मम् । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मम् । ज्ये꣡ष्ठ꣢꣯म् । अ꣣ग्नि꣢म् । आ꣡न꣢꣯वम् । यः । स्म꣣ । श्रुत꣡र्व꣢न् । आ꣣र्क्षे꣢ । बृ꣣ह꣡द꣢नीकः । बृ꣣ह꣢त् । अ꣣नीकः । इध्य꣡ते꣢ ॥८९॥
स्वर रहित मन्त्र
अगन्म वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमग्निमानवम् । य स्म श्रुतर्वन्नार्क्षे बृहदनीक इध्यते ॥८९॥
स्वर रहित पद पाठ
अगन्म । वृत्रहन्तमम् । वृत्र । हन्तमम् । ज्येष्ठम् । अग्निम् । आनवम् । यः । स्म । श्रुतर्वन् । आर्क्षे । बृहदनीकः । बृहत् । अनीकः । इध्यते ॥८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 89
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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विषय - रुतर्वा और आर्क्ष्य
पदार्थ -
इन्द्रियों को पवित्र करनेवाला इस मन्त्र का ऋषि ‘गोपवन' अपने मित्रों के साथ निश्चय करता है कि हम (अगन्म) = प्राप्त होते हैं, उस प्रभु को जोकि (वृत्रहन्तमम्)=ज्ञान को आवृत करनेवाले ‘वृत्र' नामक काम का बुरी तरह से नाश करनेवाला है। मनुष्य जब प्रभु को अपनी ढाल बनाता है और उसे इन शत्रुओं के सामने करता है तो ये शत्रु नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।
वे प्रभु ज्(येष्ठम्)=स्वयं प्रशस्यतम हैं, उनमें किसी प्रकार के पाप का अंश नहीं है। स्वयं प्रशस्य होते हुए वे (अग्निम्) = हमें आगे ले-चलनेवाले हैं। वे सदा अपने मित्र जीव के उत्थान की कामना करते हैं और इस उत्थान के लिए (आनवम्) = ये सदा उसे उत्साहित करनेवाले हैं [आनयति प्रोत्साहयति ] ।
प्रभु जीव को उन्नत करते हैं। परन्तु कब? जबकि (यः स्म इध्यते) = वे हृदय में दीप्त किये जाते हैं। अदीप्त अग्नि काष्ठ में होते हुए भी कार्य करनेवाली नहीं होती। इसी प्रकार सर्वव्यापकता से विद्यमान वह प्रभु हममें वृत्रहननादिरूप कार्यों को करते तभी हैं जब हम उन्हें अपने में प्रकाशित करते हैं। प्रभु का प्रकाश होता है (श्रुतर्वन् अर्क्षे) = श्रुतर्वा और आर्क्ष्य में। (“श्रुतं प्रति ऋच्छति")=सदा ज्ञान के प्रति जाने से जीव श्रुतर्वा होता है और ऋच् स्तुतौ सदा स्तुतिरूप, नकि निन्दारूप वचनों के उच्चारण से आर्क्ष्य होता है। हम अपने मस्तिष्क को ज्ञान की ज्योति से दीप्त करें और हमारी वाणी सदा स्तुतिरूप वचनों को बोले। ऐसा करने पर हममें उस प्रभु का प्रकाश होगा, (जोकि बृहद् अनीकः )= विशाल व अनन्त बलवाले हैं।
अनन्त बल प्रभु से बलवाले होकर ही हम कामादि वृत्रों का विनाश कर सकेंगे और इस प्रकार कामादि के ध्वंस से हम अपनी इन्द्रियों को पवित्र कर इस मन्त्र के ऋषि 'गोपवन' बनेंगे।
भावार्थ -
हम सदा ज्ञानमार्ग के पथिक श्रुतर्वा बनें और शुभ शब्दों का उच्चारण करनेवाले आर्क्ष्य हों तभी हममें प्रभु का प्रकाश होकर पवित्रता का प्रसार होगा ।
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