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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 908
ऋषिः - सुतंभर आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
त्वा꣡म꣢ग्ने꣣ अ꣡ङ्गि꣢रसो꣣ गु꣡हा꣢ हि꣣त꣡मन्व꣢꣯विन्दञ्छिश्रिया꣣णं꣡ वने꣢꣯वने । स꣡ जा꣢यसे म꣣थ्य꣡मा꣢नः꣣ स꣡हो꣢ म꣣ह꣡त्त्वामा꣢꣯हुः꣣ स꣡ह꣢सस्पु꣣त्र꣡म꣢ङ्गिरः ॥९०८॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ꣣ग्ने । अ꣡ङ्गि꣢꣯रसः । गु꣡हा꣢꣯ । हि꣣त꣢म् । अ꣡नु꣢꣯ । अ꣣विन्दन् । शिश्रियाण꣢म् । व꣡ने꣢꣯वने । व꣡ने꣢꣯ । व꣣ने । सः꣢ । जा꣣यसे । मध्य꣡मा꣢नः । स꣡हः꣢꣯ । म꣣ह꣢त् । त्वाम् । आ꣣हुः । स꣡ह꣢꣯सः । पु꣣त्र꣢म् । पु꣣त् । त्र꣢म् । अ꣢ङ्गिरः ॥९०८॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने अङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दञ्छिश्रियाणं वनेवने । स जायसे मथ्यमानः सहो महत्त्वामाहुः सहसस्पुत्रमङ्गिरः ॥९०८॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । अग्ने । अङ्गिरसः । गुहा । हितम् । अनु । अविन्दन् । शिश्रियाणम् । वनेवने । वने । वने । सः । जायसे । मध्यमानः । सहः । महत् । त्वाम् । आहुः । सहसः । पुत्रम् । पुत् । त्रम् । अङ्गिरः ॥९०८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 908
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - पुत्रों द्वारा पिता का अन्वेषण
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = सम्पूर्ण अग्रगति के साधक अथवा प्रकाश के पुञ्ज प्रभो ! (गुहा हितम्) = हृदयगुहा में रखे हुए आपको (अङ्गिरसः) = आपके सच्चे पुत्रों ने, जिनका नाम अङ्गिरस पड़ा, उन्होंने (त्वाम्) = आपको (अन्वविन्दन्) = प्राप्त किया [ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे - ऋ० १०.६२.५]। प्रभु सर्वव्यापकता के नाते हमारे हृदयों में विद्यमान हैं ही, परन्तु उस हृदयरूप गुहा में स्थित प्रभु का दर्शन वे ही कर पाते हैं जो उस प्रभु के सच्चे पुत्र बनते हैं। प्रभु तेजस्विता के पुञ्ज हैं। ये अङ्गिरस भी तेजस्वी बनकर प्रभु के सच्चे पुत्र बनते हैं । २. (वनेवने) = [वनु याचने]=प्रत्येक याचना के समय (शिश्रियाणम्) = जिसका आश्रय लिया जाता है, ऐसे आप हैं। मनुष्य को जब कभी कोई कमी दिखती है, तो आपकी ओर ही देखते हैं । ३. (सः) = वे आप (मथ्यमानः) = मस्तिष्क व हृदयरूप दो अरणियों से मथे जाने पर (जायसे) = प्रादुर्भूत होते हैं । वे प्रभु हृदय व मस्तिष्क के मन्थन से- श्रद्धा व विद्या के समन्वय से प्रादुर्भूत होते हैं । ४. (सहो महत्) = आप महनीय बल हैं। प्रभु ‘तेज-वीर्य-बल-ओजमन्यु व सहस्' हैं और इस प्रकार प्रभु की तेजस्विता का पर्यवसान ‘सहस्' में है । ५. हे (अङ्गिर:) = अङ्गिरसों से उपलब्ध होनेवाले प्रभो ! (त्वाम्) = आपको (सहसः पुत्रम्) = सहस् का पुत्र (आहुः) = कहते हैं, क्योंकि सहस् को धारण करने से ही प्रभु का दर्शन हो पाता है, अतः प्रभु को 'सहस् का पुत्र' कह दिया गया है। सहस् का पुञ्ज [पुतला] होने से भी प्रभु सहस्-पुत्र हैं|
भावार्थ -
प्रभु का सच्चा पुत्र अङ्गिरस् बनकर, मनुष्य प्रभु का दर्शन पाता है I