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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 989
ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣡नु꣢ त्वा꣣ रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣡ स्पर्ध꣢꣯मानमददेताम् । इ꣢न्द्र꣣ य꣡द्द꣢स्यु꣣हा꣡भ꣢वः ॥९८९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡नु꣢꣯ । त्वा꣣ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । स्प꣡र्ध꣢꣯मानम् । अ꣣ददेताम् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । यत् । द꣣स्युहा꣢ । द꣣स्यु । हा꣢ । अ꣡भ꣢꣯वः ॥९८९॥


स्वर रहित मन्त्र

अनु त्वा रोदसी उभे स्पर्धमानमददेताम् । इन्द्र यद्दस्युहाभवः ॥९८९॥


स्वर रहित पद पाठ

अनु । त्वा । रोदसीइति । उभेइति । स्पर्धमानम् । अददेताम् । इन्द्र । यत् । दस्युहा । दस्यु । हा । अभवः ॥९८९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 989
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

गत मन्त्र में शत्रुओं के पूर्ण पराजय का उल्लेख था । उसी बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि — १. (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता और शत्रुओं का विदारण करनेवाले जीव ! (यत्) = जब तू (दस्युहा) = काम-क्रोधादि दस्युओं का नाश करनेवाला (अभवः) = होता है (अनु) = उसके पश्चात् (उभे रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक दोनों (स्पर्धमानम्) = स्पर्धा के साथ (त्वा) = तुझे (अददेताम्) = अपनाअपना सामर्थ्य प्राप्त कराएँ ।

जब मनुष्य जितेन्द्रिय बनकर काम-क्रोधादि को नष्ट कर देता है तब शरीर नीरोग हो जाता है और मस्तिष्क ज्ञान की दीप्ति से जगमगा उठता है। नीरोगता व ज्ञान देने में ये पृथिवी व द्युलोक मानो परस्पर स्पर्धा करते हैं ।

भावार्थ -

इन्द्र नीरोग वा ज्ञानी होता है ।

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