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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - लोहितवासः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
तिष्ठा॑वरे॒ तिष्ठ॑ पर उ॒त त्वं ति॑ष्ठ मध्यमे। क॑निष्ठि॒का च॒ तिष्ठ॑ति तिष्ठा॒दिद्ध॒मनि॑र्म॒ही ॥
स्वर सहित पद पाठतिष्ठ॑ । अ॒व॒रे॒ । तिष्ठ॑ । प॒रे॒ । उ॒त । त्वम् । ति॒ष्ठ॒ । म॒ध्य॒मे॒ । क॒नि॒ष्ठि॒का । च॒ । तिष्ठ॑ति । तिष्ठा॑त् । इत् । ध॒मनि॑: । म॒ही ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिष्ठावरे तिष्ठ पर उत त्वं तिष्ठ मध्यमे। कनिष्ठिका च तिष्ठति तिष्ठादिद्धमनिर्मही ॥
स्वर रहित पद पाठतिष्ठ । अवरे । तिष्ठ । परे । उत । त्वम् । तिष्ठ । मध्यमे । कनिष्ठिका । च । तिष्ठति । तिष्ठात् । इत् । धमनि: । मही ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
विषय - नाड़ीचक्र-विकास
पदार्थ -
१. कई बार बड़े-बड़े ऑप्रेशनों [शल्यक्रिया के कार्यों] में रुधिर की गति को रोकना नितान्त अभीष्ट हो जाता है। उस समय (अवरे) - हे निचली नाड़ी! तू (तिष्ठ) = ठहर जा, (परे) = उपरली नाड़ी! तू भी (तिष्ठ) = ठहर जा (उत) = और (मध्यमे) = हे मध्यम नाड़ी! (त्वं तिष्ठ) = तू भी ठहर । २. स्थान के दृष्टिकोण से तीन प्रकार की ही नाड़ियाँ सम्भव हैं-'निचली, उपरली व बीच की'। अब आकार-प्रकार के दृष्टिकोण से उल्लेख करते हुए कहा है-(च) = और (कनिष्ठिका) = छोटी नाड़ी (तिष्ठति) = ठहरती है, (इत्) = निश्चय से (मही धमनि:) = बड़ी नाड़ी भी (तिष्ठात्) = रुक जाए। इसप्रकार कुछ देर के लिए रुधिर-प्रवाह को रोकर शल्यक्रिया का कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न हो जाने पर पुनः रुधिराभिसरण का कार्य सब नाड़ियों में ठीक से होने लगेगा। ३. यहाँ शल्यक्रिया के अत्यन्त कुशलतापूर्ण प्रयोग का संकेत स्पष्ट है।
भावार्थ -
सब नाड़ियों में चलनेवाले रुधिराभिसरण को रोकर शल्यक्रिया के कार्य को सुसम्पन्न कर लिया जाए।
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