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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - त्रिपादार्षी गायत्री
सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
परि॑ वः॒ सिक॑तावती ध॒नूर्बृ॑ह॒त्य॑क्रमीत्। तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । व॒:। सिक॑ताऽवती । ध॒नू: । बृ॒ह॒ती । अ॒क्र॒मी॒त् । तिष्ठ॑त । इ॒लय॑त । सु । क॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि वः सिकतावती धनूर्बृहत्यक्रमीत्। तिष्ठतेलयता सु कम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । व:। सिकताऽवती । धनू: । बृहती । अक्रमीत् । तिष्ठत । इलयत । सु । कम् ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
विषय - खाँड व अन्न का मात्रा में प्रयोग
पदार्थ -
१. हे नाड़ियो! (सिकतावती) = रेतवाले (बृहती धनू:) = इस विशाल [धनू-Store of grain] अन्नभण्डार ने (व:) = तुमपर (परि अकमीत्) = आक्रमण किया है। वस्तुतः अन्न के शरीर में ठीक से न पहुंचने पर नाड़ियों में विकार आता है। रेत के कारण पथरी आदि रोगों की आशंका हो जाती है। अन्न का अधिक प्रयोग भी अवाञ्छनीय प्रभावों को पैदा करता है। २. 'सिकता' शब्द मिश्री के लिए भी प्रयोग में आता है, सम्भवत: खाँड का अधिक प्रयोग भी नाडीचक्र के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। ३. नाड़ीचक्र का थोड़ी देर के लिए ठहरना, प्रयोग के ठीक से हो जाने पर फिर कार्य करने लगना-यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, अत: कहा गया है (तिष्ठत) = थोड़ी देर के लिए रुको। सब मलों के हटा दिये जाने पर पुन: (कम्) = सुख से (सु) = अच्छी प्रकार (इलयत) = प्रेरित-गतिवाली होओ। यह सब प्राणायाम की साधना से ही सम्भव है। प्राणायाम की साधना करनेवाला योगी सारे नाडीचक्र पर प्रभुत्व पा लेता है और नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य से शरीर, मन व बुद्धि का उत्कर्ष करनेवाला हो जाता है।
भावार्थ -
नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य के लिए खाँड व अन्न के प्रयोग पर अत्यन्त ध्यान रखना आवश्यक है।
सूचना -
इन सारे प्रयोगों को ठीक रूप में करनेवाला ब्रह्मा-ज्ञानी पुरुष इस सूक्त का ऋषि है। इस प्रयोगकर्ता के लिए अधिक-से-अधिक योग्य होना आवश्यक है। यह ठीक प्रयोग करके अशुभ लक्षणों को दूर करता है, शुभ लक्षणों को प्राप्त कराके सौभाग्य को प्राप्त करानेवाला है, अत: यह अगले सूक्त का ऋषि 'द्रविणोदा:' बनता है।
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