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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    सूक्त - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त

    निर्ल॒क्ष्म्यं॑ लला॒म्यं॑१ निररा॑तिं सुवामसि। अथ॒ या भ॒द्रा तानि॑ नः प्र॒जाया॒ अरा॑तिं नयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ‍नि: । ल॒क्ष्म्यम् । ल॒ला॒म्यम् । नि: । अरा॑तिम् । सु॒वा॒म॒सि॒ ।अथ॑ । या । भ॒द्रा । तानि॑ । न॒: । प्र॒ऽजायै॑ । अरा॑तिम् । न॒या॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्लक्ष्म्यं ललाम्यं१ निररातिं सुवामसि। अथ या भद्रा तानि नः प्रजाया अरातिं नयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ‍नि: । लक्ष्म्यम् । ललाम्यम् । नि: । अरातिम् । सुवामसि ।अथ । या । भद्रा । तानि । न: । प्रऽजायै । अरातिम् । नयामसि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (ललाम्यम्) = मस्तक पर होनेवाले (लक्ष्म्यम्) = अशुभ चिह्न को–कलङ्क को (नि: सुवामसि) =  नि:शेषतया दूर करते हैं। मस्तक पर होनेवाला बाह्य विकार जो अत्यन्त अशुभ प्रतीत होता है, वह और मस्तिष्क-सम्बन्धी आन्तर विकार भी नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य के द्वारा दूर हो जाता है। इस नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य से (अरातिम्) = मन में उत्पन्न होनेवाली अदान की वृत्ति को (नि: सवामसि) = हम दूर करते हैं। २. (अथ) = और (या भद्रा) = जो भी भद्र बातें हैं, (तानि) = उन्हें (नः प्रजाया:) = अपनी प्रजा के साथ जोड़ते हैं और (अरातिम अदान) = भावना को (नयामसि) = उनसे दूर भगाते हैं।

    भावार्थ -

    मस्तिष्क-सम्बन्धी अशुभ लक्षण तथा मन में होनेवाली कृपणता हमसे दूर हो।

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