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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
सूक्त - द्रविणोदाः
देवता - विनायकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त
रिश्य॑पदीं॒ वृष॑दतीं गोषे॒धां वि॑ध॒मामु॒त। वि॑ली॒ढ्यं॑ लला॒म्यं ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठरिश्य॑ऽपदीम् । वृष॑ऽदतीम् । गो॒ऽसे॒धाम् । वि॒ऽध॒माम् । उ॒त । वि॒ऽली॒ढ्यम् । ल॒ला॒म्यम् । ता: । अ॒स्मत् । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रिश्यपदीं वृषदतीं गोषेधां विधमामुत। विलीढ्यं ललाम्यं ता अस्मन्नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठरिश्यऽपदीम् । वृषऽदतीम् । गोऽसेधाम् । विऽधमाम् । उत । विऽलीढ्यम् । ललाम्यम् । ता: । अस्मत् । नाशयामसि ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
विषय - विकार-विनाश
पदार्थ -
१. (रिश्यपदीम्) = हरिण के समान टौंगोवाली-हरिण की टाँगे पतली व भद्दी प्रतीत होती हैं, अतः यह टाँगों का एक अशुभ लक्षण है। (वृषदतीम्) = बैल के समान दाँतोवाली-बैल के समान बड़े-बड़े दाँत चेहरे के सब सौन्दर्य को समाप्त कर देते हैं, छोटे-छोटे दाँत ही सुन्दर प्रतीत होते हैं। (गोषेधाम) = [सेधतिर्गत्यर्थः] गौ के समान चालवाली को-गौ या बैल इधर-उधर कुछ हिलते हुए आगे बढ़ते हैं। यह झूमती हुई चाल भी अनिष्ट है (उत) = और (विधमाम्) = [ध्मा-शब्द] विकृत शब्दवाली-भिन्न-कांस्य स्वरवाली (ता:) = उन सबको उन सब विकृतियों को (अस्मत) = हमसे (नाशयामसि) = नष्ट करते हैं। इसके साथ (ललाम्यम्) = मस्तिष्क में होनेवाले (विलीळयम्) = गजेपन को [बालों को चाटे जाने को] भी हम अपने से दूर करते हैं। 'रिश्यपदी व वृषदती' दोनों शब्द टॉगों व दाँतों की समानुपातता के अभाव को प्रतिपादित करते हैं। 'गोषेधा व विधमा' शब्द चाल व शब्द की क्रियाओं के विकार को सूचित करते हैं। मस्तक का गंजापन कुछ भद्देपन की गन्ध देता है। इन सब विकारों को दूर करना अभीष्ट है। सौन्दर्य का निर्भर विकारों के न होने में ही है।
भावार्थ -
हम आकार की आनुपातिकता के न होने से-क्रियाओं की विकृति से तथा अभीष्ट स्थान पर बालों के न होने से होनेवाले असौभाग्य को दूर करें। प्रभुकृपा से सौभाग्यरूप द्रविण को प्राप्त करें।
विशेष -
अठारहवें सूक्त के दो भाग हैं। एक भाग वह है जिसमें अशुभ लक्षणों का प्रतिपादन है और दूसरा भाग वह है जिसमें उन लक्षणों को दूर करने के उपायों का प्रतिपादन है। ये दोनों भाग मिश्र-से अवश्य हैं, परन्तु अत्यन्त स्पष्ट हैं। क्या शरीर के विकार और क्या मन के विकार सभी निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहने से, द्वेष न करने से, स्नेह से, काम-क्रोध लोभ को काबू करने से, अनुकूल मति से, अनुकूल आत्मप्रेरणा से दूर होते हैं। विकारों का दूर होना ही सौभाग्य-प्राप्ति है।
इस सौभाग्य-प्राप्ति के लिए अपने-आपको शत्रुओं के आक्रमण से बचाना आवश्यक है, अत: अग्रिम सूक्त में इसी बात का उल्लेख है। सब बुराइयों को दूर करके यह 'ब्रह्मा' बनता है, ब्रह्मा ही इस सूक्त का ऋषि है -