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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
    सूक्त - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - विराडास्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त

    यत्त॑ आ॒त्मनि॑ त॒न्वां॑ घो॒रमस्ति॒ यद्वा॒ केशे॑षु प्रति॒चक्ष॑णे वा। सर्वं॒ तद्वा॒चाप॑ हन्मो व॒यं दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता सू॑दयतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । आ॒त्मनि॑ । त॒न्वाम् । घो॒रम् । अस्ति॑ । यत् । वा॒ । केशे॑षु । प्र॒ति॒ऽचक्ष॑णे । वा॒। सर्व॑म् । तत् । वा॒चा । अप॑ । ह॒न्म॒: । व॒यम् । दे॒व: । त्वा॒ । स॒वि॒ता । सू॒द॒य॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त आत्मनि तन्वां घोरमस्ति यद्वा केशेषु प्रतिचक्षणे वा। सर्वं तद्वाचाप हन्मो वयं देवस्त्वा सविता सूदयतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । आत्मनि । तन्वाम् । घोरम् । अस्ति । यत् । वा । केशेषु । प्रतिऽचक्षणे । वा। सर्वम् । तत् । वाचा । अप । हन्म: । वयम् । देव: । त्वा । सविता । सूदयतु ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (ते) = तेरे (आत्मनि) = आत्मा में-मन में, (तन्वाम्) = या शरीर में (घोरम्) = भयानक चिह्न (अस्ति) = है, (वा) = अथवा (यत्) = जो (केशेषु) = बालों में वा-या प्रतिचक्षणे प्रत्येक आँख में विकार है, (तत् सर्वम्) = उस सब विकार को (वाचा) = वाणी के द्वारा (वयम्) = हम (अपहन्म:) = दूर करते हैं। मन में, शरीर में, बालों में, आँखों में कहीं भी कोई विकार हो, उसे वाणी से दूर करते हैं, अर्थात् आत्मप्रेरणा के रूप में वाणी के द्वारा शुभ शब्दों का उच्चारण करते हुए हम अशुभ लक्षणों को दूर करते हैं। मुझमें यह विकार नहीं रहेगा, इसका स्थान सौभग लेगा-इसप्रकार के दृढ़ विचारों को जन्म देनेवाले शब्द इन विकारों को सचमुच नष्ट करनेवाले होते है। २. इसप्रकार वाणी के द्वारा आत्मिक शक्ति को जाग्रत् करने में लगे हुए (त्वा) = तुझे (देवः सविता) = यह दिव्य गुणों का (पुज) = दिव्यता का उत्पादक प्रभु (सूदयतु) = [Urge on, animate] उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने के लिए अशुभ लक्षणों को दूर करके शुभ लक्षणों की अभिवृद्धि के लिए प्रेरित करे। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हममें दिव्यता की अभिवृद्धि का कारण होता है।

    भावार्थ -

    उत्तम आत्मप्रेरणा व देव प्रभु का स्मरण हमारे मन, शरीर, बालों व आँखों के अशुभ लक्षणों को दूर करते हैं।

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