Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 18

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - निचृज्जगती सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त

    निरर॑णिं सवि॒ता सा॑विषक्प॒दोर्निर्हस्त॑यो॒र्वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। निर॒स्मभ्य॒मनु॑मती॒ ररा॑णा॒ प्रेमां दे॒वा अ॑साविषुः॒ सौभ॑गाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि:। अर॑णिम् । स॒वि॒ता । सा॒वि॒ष॒क् । प॒दो: । नि: । हस्त॑यो: । वरु॑ण: । मि॒त्र: । अ॒र्य॒मा । नि: । अ॒स्मभ्य॑म् । अनु॑ऽमति: । ररा॑णा । प्र । इ॒माम् । दे॒वा: । अ॒सा॒वि॒षु॒: । सौभ॑गाय ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निररणिं सविता साविषक्पदोर्निर्हस्तयोर्वरुणो मित्रो अर्यमा। निरस्मभ्यमनुमती रराणा प्रेमां देवा असाविषुः सौभगाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि:। अरणिम् । सविता । साविषक् । पदो: । नि: । हस्तयो: । वरुण: । मित्र: । अर्यमा । नि: । अस्मभ्यम् । अनुऽमति: । रराणा । प्र । इमाम् । देवा: । असाविषु: । सौभगाय ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (सविता) = सम्पूर्ण संसार को जन्म देनेवाला प्रभु (पदो:) = पाँवों में से (अरणिम्) = पीड़ा को (नि: साविषक्) = पूर्णरूपेण दूर करे, (हस्तयो:) = हाथों में से भी इस पीड़ा को (वरुण:) = वरुण, (मित्र:) = मित्र और (अर्यमा) = अर्यमा (निः) = दूर करे। पाँवों व हाथों में कमी आ जाने से सारी क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन कमियों का दूरीकरण सविता, वरुण, मित्र व अर्यमा की कृपा से होता है। 'सविता' निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहने का संकेत करता है, 'वरुण' द्वेष-निवारण की देवता है, 'मित्र: ' सबके साथ स्नेह की भावना को व्यक्त करता है, 'अर्यमा' [अरीन् यच्छति] काम

    क्रोधादि शत्रुओं के नियमन को कह रहा है। एवं, हाथ-पाँवों के सब दोषों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि [क] हम निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहें । तोड़-फोड़ के विध्वंसक कार्यों को करनेवाले ही अपने हाथ-पैर विकृत कर बैठते हैं। [ख] इसी प्रसङ्ग में यह नितान्त आवश्यक है कि हम द्वेष न करें-सबके साथ स्नेह से चलें। [ग] इसके लिए अर्यमा बनने की आवश्यकता है। काम-क्रोध-लोभ का नियमन करने पर ही हम द्वेष से ऊपर उठकर प्रेम से वर्त्तनेवाले होते हैं। २. (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (रराणा) = सब उत्कृष्ट भावों को देती हुई (अनुमतिः) = अनुकूल मति (नि:) = हमारे हाथों व पैरों से विकारों को दूर करे । प्रतिकूल मति विकृत भावों को पैदा करके अङ्गों की विकृति का कारण बनती है, अत: (इमाम्) = इस अनुकूल मति को सब (देवाः) = देव (प्र असाविषु:) = हमारे अन्दर उत्पन्न करें, जिससे (सौभगाय) = सौभग-सौन्दर्य हममें निवास करें।

    भावार्थ -

    अशुभ लक्षणों को दूर करने के लिए और हाथ-पैरों के शुभ लक्षणों के लिए आवश्यकता है कि [क] हम निर्माण के कार्यों में लगे रहें, [ख] द्वेष न करें, [ग] स्नेहवाले हों, [घ] काम-क्रोध-लोभ को काबू करें, [ङ] अनुकूल मतिवाले हों, निराशा के विचारोंवाले न हों।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top