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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
सूक्त - चातनः
देवता - यातुधानी
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
पु॒त्रम॑त्तु यातुधा॒नीः स्वसा॑रमु॒त न॒प्त्य॑म्। अधा॑ मि॒थो वि॑के॒श्यो॑३ वि घ्न॑तां यातुधा॒न्यो॑३ वि तृ॑ह्यन्तामरा॒य्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒त्रम् । अ॒त्तु॒ । या॒तु॒ऽधा॒नी: । स्वसा॑रम् । उ॒त । न॒प्त्यम् । अध॑ । मि॒थ: । वि॒ऽके॒श्य: । वि । घ्न॒ता॒म् । या॒तु॒ऽधा॒न्य: । वि । तृ॒ह्य॒न्ता॒म् । अ॒रा॒य्य: ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुत्रमत्तु यातुधानीः स्वसारमुत नप्त्यम्। अधा मिथो विकेश्यो३ वि घ्नतां यातुधान्यो३ वि तृह्यन्तामराय्यः ॥
स्वर रहित पद पाठपुत्रम् । अत्तु । यातुऽधानी: । स्वसारम् । उत । नप्त्यम् । अध । मिथ: । विऽकेश्य: । वि । घ्नताम् । यातुऽधान्य: । वि । तृह्यन्ताम् । अराय्य: ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
विषय - परस्पर लड़ने-झगड़ने से बचना
पदार्थ -
१. (अध) = अब (यातुधान्य:) = औरों के लिए पीड़ा का आधान करनेवाली (स्त्रियाँ मिथ:) = परस्पर भी (विकेश्य:) = बिखरे हुए केशोंवाली (विघ्नताम्) = परस्पर (मारने) = पीटनेवाली होती हैं और (अराय्य:) = न देने की वृत्तिवाली ये यातुधानियाँ (वितहान्ताम) = विविध प्रकारों से परस्पर हिंसा करनेवाली होती हैं। २. इसप्रकार परस्पर लड़ती हुई तथा हिंसात्मक कर्मों में लगी हुई (यातुधानी:) = ये यातुधानियाँ (पुत्रम्) = पुत्र को (अत्तु) = खा जाती हैं, अर्थात् उनके जीवन को नष्ट कर देती हैं, (उत) = और (स्वसारम्) = अपनी बहिन को व नप्त्यम्-नाती को भी खा जाती हैं, अर्थात् उनके जीवन को भी नष्ट कर देती है।
भावार्थ -
सन्तान को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है कि गृहपत्नियों परस्पर लड़ें नहीं । और हिंसात्मक कर्मों में भी प्रवृत्त न हों।
विशेष -
सूक्त का संक्षिप्त विषय यह है कि प्रचारक ऐसी उत्तमता से प्रचार करे कि समाज से 'द्वयावी, किमीदी व यातुधान' दूर हो जाएँ। माताएँ भी यातुधानत्व को छोड़कर उत्तम कर्मों में लगी रहकर सन्तानों को उत्तम बनाएँ [१-४] । सन्तानों को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है कि इन्हें 'अभीवर्तमणि' के रक्षण की शिक्षा दी जाए। इसके रक्षण से जीवन को उत्तम बनाते हुए वे 'वसिष्ठ' अत्यन्त उत्तम निवासवाले बनेंगे। यह वसिष्ठ ही अगले सूक्त का ऋषि है।