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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त

    अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे। तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽव॒र्तेन॑ । म॒णिना॑ । येन॑ । इन्द्र॑: । अ॒भि॒ऽव॒वृ॒धे । तेन॑ । अ॒स्मान् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अ॒भि । रा॒ष्ट्राय॑ । व॒र्ध॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीवर्तेन मणिना येनेन्द्रो अभिवावृधे। तेनास्मान्ब्रह्मणस्पते ऽभि राष्ट्राय वर्धय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽवर्तेन । मणिना । येन । इन्द्र: । अभिऽववृधे । तेन । अस्मान् । ब्रह्मण: । पते । अभि । राष्ट्राय । वर्धय ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. मणि शब्द शरीर में उत्पन्न सोमकणों के लिए प्रयुक्त होता है। वीर्य का एक-एक बिन्दु मणि के समान है। जिस समय इसे नष्ट न होने देकर शरीर में ही सब ओर व्याप्त किया जाता है तो यह 'अभीवर्त' [अभितः वर्तने] कहलाती है। (अभीवर्तेन मणिना) = शरीर में सर्वत्र व्याप्त होनेवाले इस सोम-रक्षणरूप मणि से (येन) = जिससे (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता-जितेन्द्रिय पुरुष (अभिवावृधे) = ऐहिक वा आमुष्मिक दोनों प्रकार की उन्नति करता है-'अभ्युदय और नि:श्रेयस' दोनों को सिद्ध करता है अथवा 'शरीर व मस्तिष्क' इन दोनों का विकास कर पाता है, तेन-उस अभीवर्तमणि से हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् आचार्य! (अस्मान्) = हमें (राष्ट्राय) = राष्ट्र-उन्नति के लिए (अभिवर्धय) = शरीर व मस्तिष्क दोनों के दृष्टिकोण से बढ़ाइए। २. वस्तुत: वही युवक राष्ट्रोन्नति में सहायक होता है जो स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्कवाला हो। शरीर के स्वास्थ्य व मस्तिष्क की दीप्ति के लिए इस सोमकणरूप मणि को अभीवर्तमणि बनाना आवश्यक है। शरीर में इसे सब ओर व्याप्त करने से ही यह अभीवर्तमणि बन जाती है। इसका लाभ इन्द्र-जितेन्द्रिय पुरुष को ही होता है।

    भावार्थ -

    सोमकणों को शरीर में सुरक्षित करके हम उसे 'अभीवर्तमणि' का रूप दें। यह हमें स्वस्थ शरीर व दीस मस्तिष्क बनाएगी। हम राष्ट्रोन्नति में सहायक होंगे।

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