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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त

    स॑पत्न॒क्षय॑णो॒ वृषा॒भिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः। यथा॒हमे॒षां वी॒राणां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑ण: । वृषा॑ । अ॒भिऽरा॑ष्ट्र: । वि॒ऽस॒स॒हि:।यथा॑। अ॒हम् । ए॒षाम् । वी॒राणा॑म् । वि॒ऽराजा॑नि । जन॑स्य । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सपत्नक्षयणो वृषाभिराष्ट्रो विषासहिः। यथाहमेषां वीराणां विराजानि जनस्य च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सपत्नऽक्षयण: । वृषा । अभिऽराष्ट्र: । विऽससहि:।यथा। अहम् । एषाम् । वीराणाम् । विऽराजानि । जनस्य । च ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्र के अनुसार मैं सूर्योदय के साथ ही प्रभुस्तबन प्रारम्भ करता हूँ (यथा) = जिससे कि (अहम्) = मैं सपलक्षयण: रोगकृमिरूप सपत्नों को नष्ट करनेवाला होऊँ, (वृषा) = शक्तिशाली बनूँ। (अभिराष्ट्र:) = [राष्ट्रम्=any national or public calamity] राष्ट्रीय विपत्ति को भी अभिभूत करनेवाला हो। अपने सपत्नों को नष्ट करके राष्ट्र के शत्रुओं को भी (विषसहिः) = पराभव करनेवाला बनूँ। २. (एषां वीराणां विराजानि) = मैं इन वीर पुरुषों में विशेषरूप से दीप्त हो (च) = और (जनस्य) = [विराजानि]-लोकों का रञ्जन करनेवाला बनूं। ३. वस्तुत: प्रत्येक व्यक्ति को 'अभिराष्ट्र व विषासहि' होना है, विशेषतः राजा को। राजा ने अपने कन्धे पर राष्ट्र के भार को धारण किया है। उस कर्त्तव्य को निभाने के लिए तो उसे अभीवर्तमणि के रक्षण द्वारा 'सपत्नक्षयण और वृषा' तो बनना ही है, साथ ही अभिराष्ट्र व विषासहि बनकर वह वीरों में चमकनेवाला व लोकों का रञ्जनवाला बने।

    भावार्थ -

    प्रभु का आराधन व 'अभीवर्तमणि' का रक्षण करता हुआ मैं सपत्नक्षयण, वृषा, अभिराष्ट्र व विषासहि बनें।

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