अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
अ॑भीव॒र्तो अ॑भिभ॒वः स॑पत्न॒क्षय॑णो म॒णिः। रा॒ष्ट्राय॒ मह्यं॑ बध्यतां स॒पत्ने॑भ्यः परा॒भुवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽव॒र्त: । अ॒भि॒ऽभ॒व: । स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑ण: । म॒णि: । रा॒ष्ट्रा॒य॑ । मह्य॑म् । ब॒ध्य॒ता॒म् । स॒ऽपत्ने॑भ्य: । प॒रा॒ऽभुवे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभीवर्तो अभिभवः सपत्नक्षयणो मणिः। राष्ट्राय मह्यं बध्यतां सपत्नेभ्यः पराभुवे ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवर्त: । अभिऽभव: । सपत्नऽक्षयण: । मणि: । राष्ट्राय । मह्यम् । बध्यताम् । सऽपत्नेभ्य: । पराऽभुवे ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
विषय - सपत्नक्षयण मणि
पदार्थ -
१. यह (मणिः) = सोमकणरूप मणि (अभीवर्त:) = शरीर में रोगों व मन की आवञ्छनीय वृत्तियों का अभिवर्त करनेवाली होती है-उनपर आक्रमण करके उन्हें दूर भगा देती है। (अभिभव:) = यह बाह्य शत्रुओं और अशुभ व्यवहार करनेवालों को भी अभिभूत करती है। (सपत्नक्षयण:) = शरीर के पति बनने की कामनावाले हमारे सपत्नभूत रोगकृमिरूप शत्रुओं को यह नष्ट करती है। २. यह मणि (मह्यम्) = मेरे लिए तथा (राष्ट्राय) = राष्ट्र के लिए राष्ट्र की उन्नति के लिए (बाध्यताम्) = शरीर में ही बद्ध की जाए। शरीर में ही सुरक्षितरूप से स्थापित हो। रोगों के दूर होने पर ही मेरे जीवन की उन्नति सम्भव होती है। [मशकेभ्यः धूमः मच्छरों के निवारण के लिए धुंआ है]। इसका स्थापन इसलिए भी आवश्यक है कि इससे शक्तिसम्पन्न बनकर ही युवक (पराभुवे) = शत्रुओं का पराभव करने में समर्थ होंगे और शत्रुओं के पराभूत होने पर ही राष्ट्रोन्नति सम्भव होती है।
भावार्थ -
यह अभीवर्तमणि रोगकृमिरूप सपत्नों को समाप्त करके वैयक्तिक उन्नति का साधन बनती है और युवकों को राष्ट्र के शत्रुओं के पराभव के लिए शक्तिसम्पन्न बनाकर राष्ट्रोन्नति का कारण होती है।
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